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मुंबई के विश्व पगोडा में कृतज्ञता सम्मेलन

- सुरेश ताम्रकर

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मध्यप्रदेश में इंदौर, भोपाल, बालाघाट, जबलपुर व रतलाम में स्थायी केन्द्र ढाई हजार साल पहले भगवान गौतम बुद्ध ने जो विपश्यना विद्या भारत को सिखाई थी, वह भारत में लुप्त हो चुकी थी। ब्रम्हदेश में इसे कुछ भिक्षुओं ने सुरक्षित रखा था।

उबा खिन ने सत्यनारायण गोयन्का को यह विद्या सिखा कर इस निर्देश के साथ 1969 में भारत भेजा कि जाओ भारत में जन्मी इस विद्या को वहाँ पुनः प्रतिष्ठापित करो। चार दशक में आचार्य गोयन्का ने भारत ही नहीं विदेशों में भी विपश्यना के अनेक केन्द्र स्थापित कर दिए। वर्तमान में 1600 शिविरों में 80 हजार अभिलाषी प्रतिदिन इस विद्या को सीख रहे हैं।

विश्व पगोडा में पूज्य गुरुजी आचार्य सत्यनारायण गोयन्का ने अपने धर्मदान के चालीस वर्ष पूर्ण होने पर कृतज्ञता सम्मेलन का आयोजन किया। इन चालीस वर्षों के प्रथम दशक (1969) से विपश्यना विद्या की भारत वापसी के चार दशक पूरे हो गए । 17 जनवरी 2010 को मुंबई में विपश्यना के प्रचार-प्रसार में जिन व्यक्तियों से उन्हें सहयोग और सहायता मिली और जिन लोगों ने उनके साथ एक भी शिविर में भाग लिया उनके प्रति गुरुजी ने कृतज्ञता ज्ञापित की।

पहला शिविर गुरुजी ने मुंबई में आयोजित किया था। इस शिविर की व्यवस्था दयानंद अडुकिया ने संभाली और उनका पुत्र विजय शिविर में शामिल हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि गोयन्का की माताजी और पिताजी भी इस शिविर में बैठने के लिए राजी हो गए। अन्य सगे-संबंधी समेत कुल तेरह लोगों का यह प्रथम शिविर विपश्यना की भारत वापसी का सर्वप्रथम साक्षी बना। प्रिय दयानंद ने बहुत अच्छा प्रबंध किया। इस प्रकार भारत में विपश्यना के पुनरागमन के इतिहास में दयानंद अडुकिया और कांतिलाल गो.शाह का नाम सदा याद किया जाएगा।

उत्तर भारत में शिविरों का सिलसिला : पहला शिविर पूरा होते ही गोयन्काजी मद्रास गए। वहाँ बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। बड़े भ्राता बालकृष्ण ने अपने अनुज का मान रखने के लिए प्रवचन कराए और शिविर भी लगवाया। इस शिविर में परिवार के कुछ लोगों के साथ भाई चौथमल का पुत्र श्यामसुंदर भी सम्मिलित हुआ। कुछ एक शिविर फिर मुंबई की धर्मशाला में लगे। इसके पश्चात गुरुजी उत्तरभारत गए, वहाँ अभिन्ना मित्र और साहित्यकार यशपाल जैन ने बिड़ला मंदिर की अतिथि शाला में शिविर लगवाया। फिर तो उत्तरभारत में शिविरों का एक सिलसिला सा चल पड़ा।

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चौदहवाँ शिविर बोधगया के समन्वय आश्रम में लगा, अनेक भिक्षुओं के साथ पुराने मित्र अनागारिक मुनींद्र भी शामिल हुए। उत्तर भारत में अनेक स्थानों पर शिविर लगते रहे, कुछ विदेशी भी इनमें भाग लेते रहे। उन्हें संक्षेप में अंगरेजी में प्रवचन और साधना संबंधी निर्देश गुरुजी देते रहे, जिससे वे संतुष्ट व प्रसन्न होकर गंभीरतापूर्वक तपते थे।

और अँगरेजी में पहला शिविर : बीसवें शिविर के बाद कुछ विदेशी साधकों ने आग्रह किया कि उनके लिए अँगरेजी में शिविर लगाया जाए। पूरा शिविर अँगरेजी में चलाना गुरुजी को कठिन लगा। तब वे अँगरेजी में धाराप्रवाह प्रवचन नहीं दे सकते थे। इसलिए इंकार कर दिया। उन्होंने गोयन्काजी के पूज्य गुरुदेव उबा खिन को रंगून में शिकायत कर दी। गुरुदेव का कठोर आदेश आया कि मैं उनके लिए शिविर अवश्य लगाऊँ। भाषा की कठिनाई धर्म दूर कर देगा।

गोयन्काजी झिझकते हुए शिविर लगाने डलहौजी गए। पहले दिन शाम का प्रवचन केवल 15 मिनट, दूसरे दिन आधा घंटा और तीसरे दिन से तो हिन्दी की भाँति अँगरेजी में घंटे भर धाराप्रवाह प्रवचन देने लगे। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। यह धर्म का प्रताप और गुरुदेव की मंगल मैत्री ही थी। शिविर अत्यंत सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इसके बाद तो अँगरेजी और हिन्दी में शिविरों का सिलसिला चल पड़ा जो अब तक निर्बाध जारी है। डलहौजी शिविर में यशपाल जैन और विष्णु प्रभाकरजी जैसे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार भी आए थे।

विदेश से भी सहयोगी आए : मुंबई के कृतज्ञता सम्मेलन में इन सब सहयोगियों और इनके परिजनों को आमंत्रित किया गया था। एक-एक कर उनका नाम पुकारा गया और गोयन्काजी ने उनके सहयोग की सराहना करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता जताई। विदेश से भी अनेक सहयोगी आए थे। दुनिया के सबसे बड़े इस पगोडा का सभागार खचाखच भरा था। इसमें एक साथ 8-10 हजार साधक ध्यान कर सकते हैं। गुरुजी इन दिनों चल नहीं पाते हैं। उन्हें माताजी के साथ व्हील चेयर पर लाया जाता है।

सभागार के बीचोंबीच घूमते हुए मंच पर उन्होंने बारी-बारी से सभी सहयोगियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। सुई पटक सन्नाटे के बीच सभी आमंत्रित उन्हें सुनते रहे। 85 वर्ष की अवस्था में भी गुरुजी की वाणी में वैसा ही ओज है। उन्होंने इतने विशाल पगोडा के निर्माण के औचित्य पर भी प्रकाश डाला। कहा-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए यह भी जरूरी है। प्रतिदिन यहाँ सैकड़ों लोग पगोडा देखने ही आते हैं, उनमें से कुछ के मन में धर्म के प्रति प्रेरणा भी जाग सकती है। यह पगोडा सदियों तक धर्म का संदेश वाहक बनेगा।

विपश्यना
- 1969 से 79 के प्रथम दस वर्षों में 165 शिविरों में 16 हजार 496 लोग शामिल।

- वर्तमान में 147 केन्द्र, दो हजार दीक्षित आचार्य, अँगरेजी, हिन्दी व अन्य भाषाओं में शिविरों का संचालन।

- प्रशिक्षण कार्यक्रम का 58 भाषाओं में अनुवाद।

- विश्वभर में 1600 शिविरों में प्रतिदिन 80 हजार लोग भाग ले रहे हैं।

- मुनि, भिक्षु, संन्यासी, पादरी, हिन्दू, सिख, ईसाई, मुस्लिम, जैन सभी भाग लेते हैं।

- बच्चों के लिए भी एक, दो और तीन दिवसीय ध्यान शिविरों का आयोजन।

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