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विपश्यना : अपने भीतर खोजो शांति

विश्व शांति के लिए आंतरिक शांति आवश्यक

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अगस्त 2000 के अंत में पूज्य गुरुदेव ने उपरोक्त शिखर सम्मेलन में भाग लिया, जिसमें विश्व के 1000 से अधिक धार्मिक और आध्यात्मिक नेता यूएनओ के प्रधान सचिव कोफी अन्नान की अध्यक्षता में एकत्र हुए थे। इस सम्मेलन का लक्ष्य सहिष्णुता बढ़ाना, विश्व शांति को प्रोत्साहन (पोषण, विकास) देना और विभिन्न सांप्रदायिक नेताओं द्वारा सौहार्दपूर्ण वातावरण में आपसी वार्तालाप को बढ़ावा देना था, लेकिन विभिन्न नेताओं के दृष्टिकोण भिन्न होने के कारण मतभेद उभरने की ही संभावना प्रबल थी।

ऐसे में पूज्य गुरुदेव ने अपने प्रस्तुतिकरण में इस बात पर जोर दिया कि जो बातें सभी आध्यात्मिक मार्गों में समान हैं उस सर्वव्यापी धर्म यानी कुदरत के कानून को महत्व देना चाहिए। उनकी बातों का बड़े उत्साह के साथ स्वागत किया गया।

उन्होंने कहा- 'मित्रो, आध्यात्मिक एवं धार्मिक दुनिया के नेताओं! आज हम सबको मिलकर मानवता की सेवा करने का एक उत्तम अवसर उपलब्ध हुआ है। धर्म एकता लाए तो ही धर्म है अन्यथा यदि फूट डालता हो तो वह धर्म नहीं है। आज यहाँ धर्म परिवर्तन के पक्ष और विपक्ष में बहुत चर्चा हुई। मैं परिवर्तन के विरोध में नहीं, बल्कि उसके पक्ष में हूँ, परंतु परिवर्तन एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में नहीं, बल्कि परिवर्तन दुःख से सुख में, बंधन से मुक्ति में, क्रूरता से करुणा में होना चाहिए। आज ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता है और इसी के लिए इस महासभा (सम्मेलन) में प्रयास करना है।

पुरातन भारत ने विश्व की समग्र मानवता को शांति और सामंजस्य का संदेश दिया। पर केवल इतना ही नहीं, बल्कि शांति, सामंजस्य प्राप्त करने का तरीका भी दिया, विधि भी दी। मुझे ऐसा लगता है कि मानव समाज में यदि सचमुच शांति स्थापित करनी है तो हमें हर एक व्यक्ति को महत्व देना होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति के मन में शांति नहीं है, तो विश्व में वास्तविक शांति कैसे होगी?

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यदि मेरा मन व्याकुल है, हमेशा क्रोध, बैर, दुर्भावना और द्वेष से भरा रहता है, तो मैं विश्व को शांति कैसे प्रदान कर सकता हूँ? ऐसा कर ही नहीं सकता क्योंकि स्वयं मुझमें शांति नहीं है। इसलिए संतों और प्रबुद्धों ने कहा- 'शांति अपने भीतर खोजो।' स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतों, सत्पुरुषों और मुनियों ने यही सलाह दी। 'अपने आपको जानो' माने केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार मत कर लेना, बल्कि जब अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सचाई को जानेंगे, तब जीवन की समस्याओं का स्वतः समाधान होता चला जाएगा।

ऐसा होने पर व्यक्ति सर्वव्यापी नियामता को, कुदरत के कानून को या यूँ कहें ईश्वर के कानून को समझने लगता है। यह कानून सब पर लागू होता है। जब मैं क्रोध, बैर, दुर्भावना, द्वेष पैदा करता हूँ तो उसका सबसे पहला शिकार मैं स्वयं होता हूँ। जो बैर या द्वेष भीतर जगाया उसका पहला शिकार मैं होता हूँ। मैं पहले अपनी हानि करता हूँ और उसके बाद औरों की हानि करता हूँ। यह कुदरत का कानून है। यदि मैं अपने भीतर निरीक्षण करूँ तो देखूँगा कि जैसे ही मन में कोई मैल जागता है, शरीर में उसकी प्रतिक्रिया अनुभूत होने लगती है।

शरीर गर्म हो जाता है, जलने लगता है, धड़कन बढ़ जाती है, तनाव मालूम होता है। मैं व्याकुल हो जाता हूँ। भीतर मैल जगाकर जब मैं व्याकुल होता हूँ तो अपनी व्याकुलता केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखता, उसे औरों को भी बाँटता हूँ। अपने आसपास के वातावरण को इतना तनावपूर्ण बना देता हूँ कि जो मेरे संपर्क में आता है वही व्याकुल हो जाता है।

मैं चाहे कितनी ही सुख-शांति की बातें करूँ, मेरे भीतर क्या हो रहा है, यह शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण है। और यदि मेरा मन निर्मल है तो कुदरत का दूसरा कानून अपना काम करने लगता है। जैसे ही मेरा मन निर्मल हुआ कि यह कुदरत या ईश्वर मुझे पुरस्कार देने लगता है। मुझे शांति का अनुभव होता है। इसे मैं अपने भीतर स्वयं देख सकता हूँ।

अंत में अशोक सर्वव्यापी नियामता का, धर्म का संदेश प्रस्तुत करता है, 'मेल-जोल ही अच्छा है, आपसी झगड़े नहीं। औरों द्वारा घोषित सिद्धांत (शिक्षा) सुनने के लिए सभी तैयार रहें।' अस्वीकार करने और निंदा करने की बजाय, हम हर संप्रदाय (धर्म) के सार को महत्व दें तभी समाज में वास्तविक शांति और सामंजस्य स्थापित होगा। सबका मंगल हो!

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