कुछ वर्षों पहले मेरी दो बड़ी बहनों ने उम्र के सात दशक पार करने के बाद भी इगतपुरी (महाराष्ट्र) और जयपुर में हुए विपश्यना शिविरों में तीन से अधिक बार हिस्सा लिया था। जिज्ञासावश जब मैंने अपनी बहनों से पूछा कि विपश्यना से क्या लाभ होता है? तब उन्होंने मुझसे कहा था कि 'विपश्यना के लाभ के बारे में हम तुम्हें कुछ बताएँ उससे बेहतर यह होगा कि तुम स्वयं किसी विपश्यना शिविर में दाखिल होकर उसका अनुभव करो।'
तब तक मेरी दिनचर्या यह थी कि रात लगभग साढ़े ग्यारह बजे भोजन, करीब ढाई बजे मैं सो जाता था और इस कारण सुबह आठ बजे के लगभग ही मैं बिस्तर छोड़ता था। जब मुझे बताया गया कि विपश्यना शिविर में सुबह चार बजे उठना अनिवार्य होता है। सुबह साढ़े छः बजे स्वल्पाहार, दोपहर ग्यारह बजे भोजन, शाम पाँच बजे हल्का स्वल्पाहार और रात नौ बजे विश्राम अर्थात शयन करना अनिवार्य होता है।
मैंने मन ही मन हिसाब लगाया कि विपश्यना शिविर में लगभग बारह घंटे साधना करनी पड़ती है। और तो और मेरे जैसे वाचाल व्यक्ति के लिए निरंतर मौन रहकर नियम पालन करना असंभव था। मैं सोच में पड़ गया। उफ, क्या मैं अपनी वर्षों की दिनचर्या को पूर्णतः बदलकर इन नियमों का पालन कर सकूँगा? मेरी मानसिक अनिश्चितता देखकर मेरे दोनों सुपुत्रों ने और पत्नी ने सलाह दी कि यदि आप दृढ़ संकल्प करेंगे तो निश्चित कर पाएँगे।
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मैंने विपश्यना शिविर में दाखिल होने के लिए अंततः आवेदन कर दिया। आवेदन के बाद उत्साह से मैं अपने मिलने वालों को शिविर के बारे में बताने लगा। मेरे मित्रों की जिज्ञासा यह जानने में थी कि विपश्यना से आखिर क्या लाभ होता है? क्या इससे मन की एकाग्रता बढ़ सकेगी? क्या इससे मानसिक शक्ति में इजाफा होगा? क्या इससे मानसिक शांति मिल सकेगी या फिर इससे व्यसनाधीनता से छुटकारा मिल सकेगा? क्या विपश्यना से कार्य करने की क्षमता बढ़ेगी? इत्यादि-इत्यादि।
सवालों की इन बौछारों का मेरे पास सिर्फ एक ही जवाब था - नहीं मालूम। अगला सवाल था नहीं मालूम तो फिर विपश्यना शिविर में क्यों कर दाखिल हो रहे हो? मित्रों से मैंने कहा, किसी पूर्वाग्रह या पूर्वानुमान से परे हटकर मैं शिविर में दाखिल हो रहा हूँ और अपने विवेक से परिणाम का फैसला करूँगा।
निश्चित तिथि को शिविर शुरू हुआ। निरंतर नीचे बैठे रहने के कारण पहले दो दिन मुझे घुटनों में भारी दर्द होता रहा। यहाँ तक कि मैं सोचने लगा, कहाँ मैने यह तकलीफ मोल ले ली। बेहतर होगा कि शिविर से मैं पलायन कर लूँ। किंतु परिवार के मेरे प्रति विश्वास ने मेरा साहस बढ़ाया। इसी बीच शिविर व्यवस्थापकों ने मेरे लिए कुर्सी की व्यवस्था करवा दी। तीसरें दिन से अचानक परिवर्तन हुआ और शिविर की गतिविधियों से मुझे आत्मीय सुख मिलना शुरू हुआ जो शिविर की समाप्ति के दिन तक निरंतर बढ़ता चला गया। शिविर में 18 से 75 वर्ष के कई स्त्री-पुरुषों ने हिस्सा लिया था।
अब मेरा सभी मित्रों से आग्रह है कि यदि ग्यारह दिनों तक अपने निवास से बाहर परिवार से दूर रह सकते हों तो, ढाई हजार वर्ष पूर्व की इस पुरातन भारतीय साधना की विद्या को सीखने के लिए तथा विपश्यना शिविर के अनुशासन को निष्ठा और गंभीरतापूर्वक यदि आप आत्मसात कर सकते हों तो, अपनी आत्मिक शांति के लिए यह अनुभव जरूर लीजिए।
महानगर की भागमभाग और कटुकर्कश कोलाहल से दूर शांत वातावरण में संचालित विपश्यना शिविर से एक अनुपम उपहार आपके जीवन को अवश्य मिलेगा यह मेरा दृढ़ विश्वास है। विपश्यना का बोध वाक्य ही है- 'भवतु सब्ब मंगलम्' सबका मंगल हो - मंगल हो।'