Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

विपश्यना का नीर

कारागृह में विपश्यना का पहला शिविर

Advertiesment
हमें फॉलो करें धनुरासन
ND
राग द्वेष से मोह से, जो मन मैला होय।
विपश्यना के नीर से, बिरज विमल फिर होय॥

मन की गाँठों में उलझ, व्याकुल हैं सब लोग।
मन की गाँठें सुलझतीं, विपश्यना के योग॥

बाहर बाहर खोजते, दुखिया रहा जहान।
अंतर में ही ढूँढ ली, सुख की खान खदान॥

प्रायः अपराध का आरंभ मानसिक तनाव एवं मन की मलिनता है। जेल के अपराधियों को इस तनाव को कम करने की कोई सुविधा नहीं मिलती और यह तनाव उनके मन की निरंतर अशांति का कारण रहता है। कारागृह जीवन का मुख्य उद्देश्य बंदियों को एक संभ्रांत व्यक्ति के रूप में समाज को वापस देना है। इस उद्देश्य को दृष्टि में रखकर केंद्रीय कारागृह, जयपुर में 'विपश्यना साधना शिविर' का आयोजन किया गया जिसके द्वारा उसमें भाग लेने वाले बंदी अपनी मन की मलिनता को दूर करके मानसिक तनाव से छुटकारा पा सकें।

आचार्य श्री गोयन्काजी का प्रथम जेल शिविर सन 1975 में राजस्थान के केंद्रीय कारागृह में लगा। उस समय मैं उस राज्य का गृह सचिव था और मैंने भी विपश्यना का एक शिविर कर लिया था। इसके फलस्वरूप मुझे भी अपने जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन होने का आभास हुआ। शिविर के चौथे दिन मुझे लगा कि विपश्यना एक ऐसी विधि है जिससे न केवल व्यक्तिगत समस्याओं का ही, बल्कि सामाजिक समस्याओं का भी समाधान हो सकता है और यही नहीं, सरकारी तंत्र में भी सुधार लाया जा सकता है। चौथे दिन सायंकाल मैं गोयन्काजी से मिला और उन्हें अपने मंतव्य से अवगत कराया।

webdunia
ND
मैंने उनसे पूछा कि क्या यह विधि सरकार की शासन-प्रणाली में परिवर्तन लाने में कारगर सिद्ध हो सकती है। उन्होंने अपनी सहमति जतलाई। इस पर मैंने उनसे तुरंत पूछ लिया कि क्या हम जेल में शिविर का आयोजन कर सकते हैं? वे बहुत सकारात्मक थे और उन्होंने कहा कि यदि इसका आयोजन हो सकता हो तो वे इसके लिए चले आएँगे। तब यह लगा कि यह एक बहुत बड़ी चुनौती है।

मैंने अपने इस प्रस्ताव से संबंधित अधिकारियों से बातचीत करने का सिलसिला शुरू किया। ये लोग थे- राज्य के मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव तथा जेल के अधिकारी। प्रारंभ में तो हर किसी को कुछ-न-कुछ संशय रहा, पर अंततः यह प्रयोग कर डालने का निर्णय ले ही लिया गया!

वास्तविक कठिनाई तब आई जब श्री गोयन्काजी शिविर लेने के लिए जयपुर आ पहुँचे। मुझे उन्हें बतलाना पड़ा कि शिविर के दौरान उन्हें जेल में रखना संभव नहीं हो पाएगा। इसके स्थान पर उनके लिए जेल के बाहर एक सुंदर बंगले का प्रबंध किया जाएगा। उन्होंने व्यक्त किया कि उन्हें तो प्रतिदिन चौबीसों घंटे जेल के भीतर ही रहना होगा क्योंकि विपश्यना एक पैनी शल्यक्रिया है और वे एक शल्यचिकित्सक के मानिंद हैं। पर इसमें बाधा थी 'जेल मैन्यूअल।'

जेल में केवल वही रह सकते थे जिन्हें सजा मिल चुकी हो, या जिनके मामले अभी न्यायालय के विचाराधीन हों, या जो कोई जेल के कर्मचारी हों। मैंने गोयन्काजी के सामने यह समस्या रखी। इस पर वे बोल उठे - 'तो मुझे सजा दे दो!' यह सुनकर मैं भौंचक्का रह गया और मुझे बड़ा आघात भी पहुँचा - मेरे आचार्य को कैसे दंडित किया जा सकता है! न्यायिक विभाग से परामर्श किया गया और ऐसे लगता था कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। इस पर हमने प्रशासकीय आदेश प्रसारित करके इस समस्या का निस्तारण किया।

गोयन्काजी को जेल की डिस्पेंसरी में एक कामचलाऊ कमरे में रहने की अनुमति दे दी गई। अन्य समस्या तब आई जब शिविर आरंभ होने ही जा रहा था। उन दिनों गंभीर अपराधियों को पाँवों में बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ियाँ डाली जाती थीं। लोहे की बेड़ियों और हथकड़ियों से जकड़े हुए चार ऐसे बंदियों को ध्यानकक्ष में लाया गया। गोयन्काजी पास ही टहल रहे थे। उन्होंने जब यह देखा तो उन्हें बड़ा अचंभा हुआ। उन्होंने मुझसे पूछा कि यह क्या है? मैंने उन्हें बतलाया कि ये गंभीर अपराधी हैं। इस पर वे बोले- मेरे समक्ष बेड़ियों में जकड़े हुए लोग कैसे बैठाए जा सकते हैं? ऐसा नहीं हो सकता। बेड़ियाँ हटा दो!'

कारागृहों के महानिरीक्षक ने कहा कि जेल की सुरक्षा का उत्तरदायित्व उनका है और वह पाँवों की बेड़ियाँ तथा हथकड़ियाँ नहीं हटा सकते। परंतु गोयन्काजी भी अपनी बात पर दृढ़ थे। उन्होंने कहा कि जब लोग उनके सामने बेड़ियों में जकड़े हुए बैठे हों तब वे धर्म नहीं सिखा सकते- वे तो बेड़ियों से मुक्ति दिलाने के लिए आए हैं। महानिरीक्षक ने कहा कि वे अंदर की बेड़ियाँ तोड़ सकते हैं पर बाहर की नहीं। पर गोयन्काजी इसी बात पर बल देते रहे कि ध्यान करने वालों को बेड़ियाँ नहीं लगी होनी चाहिए। वह एक बड़ी दुविधा थी, एक भारी समस्या!

मैं मरने को तैयार हूँ : जब शिविर पूरा हुआ तब मुझे एक मृत्युदंड प्राप्त बंदी ने यह संदेश भिजवाया कि उसने भारत के राष्ट्रपति को प्रस्तुत अपनी दया की याचिका को वापस लेने का निर्णय लिया है। वह मरने के लिए तैयार है। अब उसके पास धर्म है और वह अपने सिर पर सवार मृत्यु के प्रति सर्वथा निर्भीक है! इसी बीच में उसकी याचिका भी निरस्त हो गई और फाँसी के तख्ते पर लटककर उसे प्राणदंड देने की तिथि भी निश्चित कर दी गई। यह दुःखद वाकया देखने के लिए मुझे भी निमंत्रण दिया गया।

बंदी अपनी कोठरी से मुस्कराते हुए बाहर निकला। उस समय उसका मनोबल खूब बुलंदी पर था। उसने जेल के कर्मचारियों को धन्यवाद दिया और फाँसी के तख्ते की ओर ऐसी प्रफुल्लता के साथ आगे बढ़ गया जैसा पहले कभी देखने में नहीं आया।

- रामसिंह (पूर्व गृह सचिव, राजस्थान)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi