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विपश्यना : दुःख का मूल दुष्कर्म

- डॉ. ओमप्रकाश

हमें फॉलो करें विपश्यना : दुःख का मूल दुष्कर्म
यह संसार परीजगत के समान नहीं है जहाँ सब कुछ सुखद ही हो। हम इस सत्य को नकार नहीं सकते कि जीवन अपूर्ण, अधूरा और संतोष रहित है। इसमें क्लेश है और अशांति है। इसे हम दुःख के नाम से जानते हैं। संत गुरु नानकदेवजी ने ठीक ही कहा है, 'नानक दुखिया सब संसार।'

भगवान बुद्ध ने भी कहा है कि संसार में केवल दुःख ही दुःख है। 'सब्बो पज्जलितो लोको।' धनी-निर्धन, रोगी-निरोगी, श्वेत-काले, पति-पत्नी, बच्चे-बूढ़े, अपंग-सपंग सभी की अपनी अपनी समस्याएँ हैं और सभी परेशान हैं। सभी दुःखी हैं।

यह दुःख क्यों है?यह क्लेश क्यों है? इसका कारण क्या है? और इसका निवारण कैसे हो? क्या इसके मूल कारण को हटाया जा सकता है?

यदि दुःख कारक घटनाएँ और परिस्थितियाँ अकस्मात होती हैं जैसे नेपाल और बिहार का भूचाल, तब तो इनके निवारण के प्रयत्न करने की कोशिश करनी बेकार है। यह हमारे वश की बात नहीं।

यदि इस दुःख का कारण कोई अदृश्य शक्ति की इच्छा है और वह जो चाहे वैसा करेगी ही, तब भी हमारे वश की कोई बात नहीं। ऐसी अवस्था में या तो जैसे कुछ लोग करते हैं इसे अवश्यंभावी समझकर स्वीकार कर लें अथवा दूसरे कुछ लोगों की तरह उस महाशक्ति को प्रसन्ना करने के लिए कुछ जप करें, अनुष्ठान, पुरच्चरण, पूजा-पाठ आदि करें। पर देखा गया है कि यह सब कुछ करने पर भी दुःख का निवारण नहीं होता।

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