वर्ष 2003 की शुरुआत से ही मेरा स्वास्थ्य और खराब रहने लगा। सिर चकराना, जी मितलाना, बेहोशी छाना तथा कमजोरी शनैः-शनैः बढ़ने लगी। अब तो जोड़ों के दर्द से भी मैं परेशान हो उठी। ज्यों-ज्यों बीमारियाँ मुझे घेरने लगीं, हर तरह से उनके इलाज की कोशिशें भी बढ़ने लगीं। सभी महँगी चिकित्सकीय जाँचों के अनुसार भी इलाज कारगर नहीं हो पा रहे थे, परंतु इस दौर में भी विपश्यना ध्यान बराबर जारी रहा। कुछ ही समय गुजरते न गुजरते रोग अपनी चरम अवस्था पर आ गए।
शरीर पर लकवे ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया तथा दवाएँ बेअसर साबित हो रही थीं। ऐसे में कहीं से प्राकृतिक चिकित्सा को अपनाने का सुझाव मिला और इलाज चालू हुआ। सौभाग्य से वयोवृद्ध चिकित्सक भी विपश्यी साधक थे। उनका धैर्य और गंभीरता मन को प्रेरणा देती थी। उपचार के दौरान पूज्य गुरुदेव विपश्यनाचार्य सत्यनारायण गोयन्काजी की वाणी याद आती रहती कि स्थितियाँ बदलती रहती हैं और हमें हर स्थिति के दौरान अपने अंदर होने वाली संवेदनाओं को समतापूर्वक, अनित्य भाव से देखने की क्षमता विकसित करते जाना है।
सचमुच यही तो एक काम था जिसको करके मैं अपने आपकी मदद कर सकती थी। समय के साथ मेरे स्वास्थ्य में सुधार आने लगा। बीमारी की गंभीरता और कम समय में सुधार को देखकर अस्पताल के लोग भी आश्चर्यचकित एवं मुदित थे। बार-बार यही कहते कि प्राकृतिक चिकित्सा ने तो अपना काम किया ही, किंतु विपश्यना ध्यान के अभ्यास ने उसका प्रभाव जैसे कई गुना बढ़ा दिया।
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इतनी द्रुत गति से इतना सुधार काबिले गौर है। फिर तो उत्तरोतर स्वास्थ्य में सुधार आता गया। विपश्यना सचमुच आशुफलदायिनी एवं आजमाकर देखने योग्य साधना है। स्वास्थ्य में तो फिर उतार-चढ़ाव आते रहेंगे, क्योंकि जर्जरित होना शरीर-धर्म है और हर अवस्था में सजग रहकर समता बनाए रखना, मन को निर्मल बनाना, विकारों से मुक्ति का प्रयास करना हमारा कर्तव्य है।
मन में विकार जागते हैं, तो शरीर में विष पैदा होता है। उसका संवर्द्धन और संचयन होता है और शरीर रोगी हो जाता है। भगवान बुद्ध महाभिषक यानी महान चिकित्सक कहलाते थे। उन्होंने विपश्यना के नैसर्गिक उपचार द्वारा मन को स्वच्छ, स्वस्थ और सबल बनाकर दुःख विमुक्त करने की यह विद्या खोज निकाली और इसके प्रशिक्षण द्वारा अनेक लोगों का कल्याण किया।
प्राकृतिक चिकित्सा में लंबे उपवास के दौरान शरीर में एकत्र विष उभरकर बाहर निकलता है, वैसे ही 10 दिन के विपश्यना-साधना शिविर में भी उसका नैसर्गिक उभार और निष्कासन होता है। रोगी शरीर की प्राकृतिक चिकित्सा की भाँति रोगी मानस के निसर्गोपचार की विद्या विपश्यना भी सार्वजनीन है, सार्वकालिक है और सार्वभौमिक है। जिस किसी व्यक्ति का मानस जब कभी, जहाँ कहीं, विकारों से विकृत हो उठता है, तब वह दुःखी हो उठता है। विकारों से छुटकारा पाते ही वह स्वस्थ-सुखी हो जाता है। यह विद्या साधक को किसी संप्रदाय के बाड़े में नहीं बाँधती, निरर्थक कर्मकांडों में नहीं उलझाती, निस्सार दार्शनिक मान्यताओं की मरीचिकाओं में नहीं भरमाती।
विपश्यना ध्यान-साधना के पूर्णतः निःशुल्क, सर्वजन के लिए, 10 दिवसीय आवासीय शिविर देशभर में लगते रहते हैं- सबके मंगल की प्रभुत मंगल कामना के साथ, सबके कल्याण के लिए, सबके भले के लिए।