विपश्यना का अर्थ है- विशेष विधि से देखना। मन को देखना, संवेदनाओं को देखना, स्फुरण को देखना, कंपन को देखना, सुख-दुःख भरी स्मृतियों को देखना। केवल देखते रहना। यह प्रक्रिया कोई आसान नहीं है। साधना की मुद्रा में बैठने, आसन लगाने और इस तरह केवल देखते रहने से शरीर में जगह-जगह टूटन होने लगती है, जी मिचलाने लगता है या अन्य नाना उपसर्ग होने लगते हैं। क्योंकि शरीर की भाँति मन के भी तत्वों के विलोड़न से यह सब होता है। इस होते रहने को साक्षी भाव से देखने की क्षमता सध जाए तो विकार क्षीण हो जाएँगे।
जीवन में तीन तत्वों की प्रधानता है : जिन्हें बल, गुण और भाव कहा जाता है। बल की आकांक्षा रखने वाले सामान्यतः भौतिक जीवन जीते हैं। गुण के उपासक नैतिक जीवन जीते हैं। भाव की आराधना करने वाले आध्यात्मिक जीवन जीते हैं। इन तीनों में समन्वय का अभाव होने के कारण ही सामाजिक जीवन में विसंगतियाँ हैं। उन विसंगतियों का निराकरण एवं सुसंगतियों का समायोजन अंतर्प्रज्ञा की जागृति से संभव है, क्योंकि विपश्यना की साधना से प्रज्ञाचक्षु खुल जाते हैं और तब व्यक्ति अपने बल, गुण व भावों को परखने की पात्रता प्राप्त कर लेता है।
वाराणसी में एक बार विश्पयना शिविर के प्रारंभ में विख्यात चिकित्सक डॉ. उड्डुपा ने शिविरार्थियों के हृदय, नाड़ी एवं रक्तचाप का परीक्षण किया। फिर शिविरान्त में उस परीक्षण की पुनरावृत्ति की। तब यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि नाड़ी दौर्बल्य दूर करने, हृदय को स्वस्थ बनाने एवं रक्तचाप को सम करने में विपश्यना का व्यावहारिक उपयोग है। डॉ. नारायण वारंदानी ने अन्यत्र विपश्यना में दिलचस्पी लेने वालों की जाँच की तो पाया कि साधना में रुचि लेने वालों की नाड़ी की धड़कन साधना के बाद कम हुई और रक्त शर्करा का भी नियमन हुआ।
शरीर को साधने के लिए विपश्यना की साधना करने वाले अपनी चर्या नियत करते हैं। ब्रह्ममुहूर्त में उठना, ध्यान करना, सात्विक आहार लेना, मौन रखना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और व्यसनों से बचना साधना के तहत आवश्यक है। पढ़ना-लिखना, रेडियो सुनना, टीवी देखना आदि बंद होने से कभी-कभी अटपटापन लगता है, लेकिन फिर साँस के आने-जाने पर ध्यान केन्द्रित होने से संवेदनाएँ स्पष्ट होने लगती हैं।
संवेदनाएँ सुखद भी हैं, दुःखद भी। दुखद संवेदनाओं से द्वेष पैदा होता है। सुखद संवेदनाओं से राग। विपश्यना के कारण इन दोनों संवेदनाओं से अलग होकर यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि हम सुख-दुःखों के साक्षी हैं। सुख-दुःखात्म प्रतिक्रियाओं से अलग रहने की क्षमता ही जीवन में गुणात्मक परिवर्तन ला देती है। इसीलिए मानसिक रोगों से आक्रांत जन भी विपश्यना से लाभान्वित होते हैं। सुख-दुःख एवं अनुकूलता-प्रतिकूलता में समत्व सध जाए, तब नैतिक जीवन अप्रभावी नहीं रह सकता।
व्यक्ति को नैतिक बनाने का कार्य धर्म ने किया। धर्माचार्यों ने बुरी आदतें छुड़ाने के लिए आचार-संहिता दी। लेकिन धर्मों के क्रिया कांडों एवं सांप्रदायिक अभिनिवेशों से जनता ऊब गई। ऐसी हालत में समाज सुधारक, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि मिलकर यह प्रयास करने लगे कि व्यक्ति को नैतिक कैसे रखा जाए ? अनैतिकता से बचाने के उपाय खोजे जाने लगे। शराबियों को रोगी मानकर डॉक्टरों ने चिकित्सा की। बच्चों एवं महिलाओं के भविष्य को सँवारने के लिए शराब की बोतलें फुड़वाने का अभियान समाज-सुधारकों ने चलाया। वैज्ञानिकों ने शराब की लत छुड़ाने के लिए वैकल्पिक पेय खोजा। मर्ज बढ़ता रहा, ज्यों-ज्यों दवा की। अन्ततः भावात्मक रूपान्तरण करने की प्रक्रिया विपश्यना ने सुलभ की। इससे कायानुपश्यना वेदनानुपश्यना चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना का समवेत दर्शन स्पष्ट हुआ।
बुद्ध, जिन या स्थितप्रज्ञ की इंद्रियाँ यथावत कार्य करती है, किंतु वे प्रज्ञा के निर्देशन में रहती हैं। ज्ञान तन्तु उनकी बात मानते हैं। इसलिए शील व समाधि, शक्ति व चेतना की समन्विति उनकी चर्चा में फलित होती है। तब वे किसी पर क्रोध करे भी तो कैसे? विट्ठलदास मोदी ने कल्याण मित्र, सत्यनारायण गोयनकाजी के सान्निध्य में लगभग इसी तरह की अनुभूति की और लिखा कि 'विपश्यना साधना का मन पर क्या प्रभाव पड़ा, इसके नाप-जोख का उपाय मेरे पास नहीं है। लेकिन मेरी पुत्र-वधू का यह मानना है कि विपश्यना शिविर के बाद मेरा क्रोध कम हो गया है। मैंने भी जाना है कि मेरा क्रोध मेरी पत्नी को कितना कष्टकारक रहा होगा।'