आओ, शुद्ध धरमपथ को समझें! शुद्ध धरमपथ की मंजिलों को समझें!
यह भी समझें कि शुद्ध धरम के पथ पर भी ऊँच-नीच का भेदभाव होता है। यह कैसे होता है? यह भेदभाव जात-पाँत पर आधारित नहीं होता। संप्रदाय पर आधारित नहीं होता। यह धर्मपथ की मंजिलों पर आधारित होता है। चार मंजिलें हैं धरमपथ की।
पहली मंजिल है शील की, दूसरी है समाधि की, तीजी है प्रज्ञा की और चौथी है विमुक्ति की।
कोई एक व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ की मंजिलों की चर्चा-प्रशंसा तो बहुत करता है। उन पर पुस्तकें लिखता है, उनकी अच्छाइयों के बारे में लोगों से खूब बहस करता है पर स्वयं पथ पर नहीं चलता। एक कदम भी नहीं चलता।
कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा होता है जिसने शुद्ध धरम के बारे में सुना है। सुनकर उससे प्रभावित हुआ है और धर्मपथ पर चलने लगा है। चलते-चलते पहली मंजिल पर पहुँच गया है। शील सदाचार का जीवन जीने लगा है परंतु अभी उसने समाधि का अभ्यास नहीं किया, प्रज्ञा का अभ्यास नहीं किया।
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धर्म के पथ पर यह दूसरा व्यक्ति निश्चय ही पहले व्यक्ति से आगे है इसलिए पहले के मुकाबले महान है। कोई तीसरा व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ पर चलते हुए शील में तो प्रतिष्ठित हुआ ही, धर्मपथ की अगली मंजिल समाधि तक भी पहुँच गया। यानी उसकी चित्त-एकाग्रता भी सबल हो गई। धर्मपथ पर ऐसा तीसरा व्यक्ति उस दूसरे व्यक्ति से महान ही है जो कि अभी शील की मंजिल तक ही पहुँचा है और पहले व्यक्ति से तो और अधिक महान है जो कि अभी शीलवान भी नहीं बन पाया।
कोई चौथा व्यक्ति ऐसा होता है जो कि धर्मपथ पर चलते हुए न केवल शील की और समाधि की ही मंजिल तक पहुँचा है, प्रयुक्त प्रज्ञा की मंजिल तक भी जा पहुँचा है। यानी शीलवान, समाधिवान ही नहीं प्रज्ञावान भी हो गया है। ऐसा व्यक्ति उस तीसरे व्यक्ति से कहीं महान है जो कि अभी समाधि की मंजिल तक ही पहुँचा है। पहले से तो वह महान है ही जो कि शीलवान भी नहीं और दूसरे से भी महान है जो कि शीलवान है पर समाधिवान नहीं।
ऐसे ही कोई पाँचवाँ व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ की अंतिम मंजिल तक पहुँच गया। वह शील, समाधि और प्रज्ञा में पुष्ट होकर विमुक्ति रस भी चख चुका है। निर्वाणदर्शी भी हो गया।
ऐसा व्यक्ति उस चौथे व्यक्ति से तो महान है ही जो कि शीलवान है, समाधिवान है, प्रज्ञावान है फिर भी अभी तक इंद्रियातीत निर्वाण का दर्शन नहीं कर सका है, परंतु पहले, दूसरे और तीसरे व्यक्ति से कहीं महान है जो कि अभी बहुत पिछड़े हुए हैं। इस प्रकार धर्मपथ पर महान और क्षुद्र का भेदभाव है ही, ऊँच-नीच का भेदभाव है ही। पर यह भेदभाव व्यक्ति के जन्म के कारण नहीं।
किसी भी जाति, वर्ण, गोत्र और देशकाल में जन्मा हुआ व्यक्ति हो, वह इन पाँचों व्यक्तियों में से कोई भी एक हो सकता है। धर्मपथ की ऊँची से ऊँची मंजिल तक पहुँचने में भी जन्म कोई बाधा नहीं पैदा कर सकता है। कोई भी व्यक्ति अपने पुरुषार्थ, परिश्रम से धर्म की अंतिम मंजिल तक पहुँच सकता है।
साधकों! जातिवाद की मिथ्या मान्यताओं को और संप्रदायवाद की बाधक बेड़ियों को तोड़कर आओ! शुद्ध धर्मपथ पर कदम-कदम चलते रहें और विमुक्त अवस्था तक पहुँचकर अपना मंगल साध लो।