20 अक्टूबर, शुक्रवार को गोवर्धन पूजा की जाएगी। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है। इस दिन बलि पूजा, अन्नकूट, मार्गपाली आदि उत्सव भी संपन्न होते हैं। अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारंभ हुई। गाय-बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूलमाला, धूप, चंदन आदि से उनका पूजन किया जाता है।
पूजन मुहूर्त-सुबह लाभ में पूजन श्रेष्ठ रहता है-
लाभ का चौघड़िया- 7.53 से 9.19 तक।
अमृत का चौघड़िया- 9.19 से 10.45 तक।
दोपहर को शुभ का चौघड़िया- 12.12 से 13.38 तक है।
गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा तथा परिक्रमा करते हैं।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को भगवान के निमित्त भोग व नैवेद्य में नित्य के नियमित पदार्थों के अतिरिक्त यथा सामर्थ्य अन्न से बने कच्चे-पक्के भोग, फल-फूल, अनेक प्रकार के पदार्थ जिन्हें 'छप्पन भोग' कहते हैं, बनाकर भगवान को अर्पण करने का विधान भागवत में बताया गया है और फिर सभी सामग्री अपने परिवार, मित्रों को वितरण करके प्रसाद ग्रहण करें।
इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र की पूजा को बंद कराकर इसके स्थान पर गोवर्धन की पूजा को प्रारंभ किया था और दूसरी ओर स्वयं गोवर्धन रूप धरकर पूजा ग्रहण की। इससे कुपित होकर इन्द्रदेव ने मूसलधार जल बरसाया और श्रीकृष्ण ने गोप और गोपियों को बचाने के लिए अपनी कनिष्ठ उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र का मान-मर्दन किया था। उनके ही घमंड के लिए गोवर्धन और गौ-पूजन का विधान है।
सब ब्रजवासी 7 दिन तक गोवर्धन पर्वत की शरण में रहे। सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर जल की एक बूंद भी नहीं पड़ी। ब्रह्माजी ने इन्द्र को बताया कि पृथ्वी पर श्रीकृष्ण ने जन्म ले लिया है, उनसे तुम्हारा वैर लेना उचित नहीं है। श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्रदेव अपनी मूर्खता पर बहुत लज्जित हुए तथा भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा-याचना की।
श्रीकृष्ण ने 7वें दिन गोवर्धन पर्वत को नीचे रखकर ब्रजवासियों को आज्ञा दी कि अब से प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व उल्लास के साथ मनाओ। यूं तो आज गोवर्धन ब्रज की छोटी पहाड़ी है किंतु इसे गिरिराज (अर्थात पर्वतों का राजा) कहा जाता है। इसे यह महत्व या ऐसी संज्ञा इसलिए प्राप्त है, क्योंकि यह भगवान कृष्ण के समय का एकमात्र स्थायी व स्थिर अवशेष है।
उस समय की यमुना नदी जहां समय-समय पर अपनी धारा बदलती रही है, वहीं गोवर्धन अपने मूल स्थान पर ही अविचलित रूप में विद्यमान है। इसे भगवान कृष्ण का स्वरूप और उनका प्रतीक भी माना जाता है और इसी रूप में इसकी पूजा भी की जाती है।
बल्लभ संप्रदाय के उपास्य देव श्रीनाथजी का प्राकट्य स्थल होने के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। गर्ग संहिता में इसके महत्व का कथन करते हुए कहा गया है कि गोवर्धन पर्वतों का राजा और हरि का प्यारा है। इसके समान पृथ्वी और स्वर्ग में कोई दूसरा तीर्थ नहीं है। यद्यपि वर्तमान काल में इसका आकार-प्रकार और प्राकृतिक सौंदर्य पूर्व की अपेक्षा क्षीण हो गया है फिर भी इसका महत्व कदापि कम नहीं हुआ है।
इस दिन स्नान से पूर्व तेलाभ्यंग अवश्य करना चहिए। इससे आयु व आरोग्य की प्राप्ति होती है और दु:ख-दारिद्रय का नाश होता है। इस दिन जो शुद्ध भाव से भगवत चरण में सादर, समर्पित, संतुष्ट व प्रसन्न रहता है, वह वर्षपर्यंत सुखी और समृद्ध रहता है। यदि आज के दिन कोई दुखी है तो वह वर्षभर दुखी रहेगा इसलिए मनुष्य को इस दिन प्रसन्न होकर इस उत्सव को संपूर्ण भाव से मनाना चाहिए।