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क्या भगवान विष्णु के अवतार हैं धन्वंतरि

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दुनिया के सबसे प्राचीनतम ग्रंथ वेद हैं। वेदों में भगवान धन्वंतरि का कोई उल्लेख नहीं है, किंतु महाभारत, भागवत, अग्निपुराण, वायुपुराण, विष्णपुराण तथा ब्रह्मपुराण में उनका वर्णन दिया गया है। धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंशावतार माना गया है।


धन्वंतरि प्रथम का प्रादुर्भाव समुद्र मंथन से हुआ जिसका विवरण महाभारत, पुराण, संहिता ग्रंथ तथा वाल्मी‍कि रामायण में आया है। वर्णन की दृष्टि से नाममात्र की भिन्नता होते हुए भी सभी जगह वर्णन एक समान है। वाल्मी‍कि रामायण वारू कांड के अनुसार देव और दानवों में एक समझौता हुआ कि वे सभी एकत्र होकर क्षीरसागर का मंथन करेंगे। नाना प्रकार की औषधियां इकट्ठी करके उसमें डालेंगे, इसके पश्चात मंथन करने पर इसका जो सार भाग उत्पन्न होगा, उसको पीयेंगे। समुद्र मंथन हेतु समुद्र में पेरू या मंदर पर्वत को वासुकि सर्प की रस्सी बनाकर उतारा गया।

सांप की पूंछ की तरफ देवता एवं मुख की तरफ असुर इकट्ठे होकर मथने लगे। इसने समुद्र में 14 रत्न दिए। यहां रत्न से अभिप्राय अतिविशिष्ट वस्तुओं से है। इनमें वैद्यराज धन्वंतरि अमृत कलश लेकर अवतरित हुए। वायुपुराण के अनुसार मंथन के अंतिम भाग में धन्वंतरि प्रकट हुए। क्षीरसागर से उतन्न धन्वंतरि का काल (समय) त्रेतायुग से पहले का माना जाता है। समुद्र से निकलने पर जिस प्रकार प्रत्येक रत्न को किसी समुदाय विशेष या व्यक्ति विशेष ने ग्रहण किया, उसी तरह धन्वंतरि को भास्कर ने ग्रहण किया। धन्वंतरि को आयुर्वेद का ज्ञान भास्कर ने दिया।

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धन्वंतरि को आदिदेव के नाम से भी जाना जाता है, जैसा कि सुश्रुत संहिता के श्लोक (सू 1/29) में आया है। इन वृत्तांतों से ज्ञात होता है कि धन्वंतरि का जन्म अमृतोत्पत्ति के समय हुआ। धन्वंतरि ने चिकित्सा विषयक ज्ञान भास्कर से प्राप्त किया। रोग दूर करने वाले प्रसिद्ध आचार्यों में इनकी गणना की गई। धन्वंतरि ने भास्कर के उपदेश से चि‍कित्सा तत्व विज्ञान तंत्र की रचना की अत: देवयुग के धन्वंतरि चिकित्सा विशारद थे। ये धन्वंतरि प्रथम हुए।

वैदिक काल में जो महत्व अश्विन कुमारों को दिया गया, आगे चलकर वह महत्व मृत्युलोक में धन्वंतरि को मिला। अश्विनी के हाथ में जीवन का प्रतीक मधु कलश था, उसी प्रकार धन्वंतरि के हाथों में अमृत कलश दिखाया गया है। धन्वंतरि भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। अत: जहां भगवान विष्णु को संसार का पालन करने वाला बताया गया है, वहीं धन्वंतरि को रोगों से रक्षा करने वाला होने से स्वास्‍थ्य का पालक माना गया है। अत: धन्वंतरि न केवल शल्य शास्त्री थे, अपितु संपूर्ण आयुर्वेद के सफल ज्ञाता होने से आयुर्वेद प्रवर्तक थे।

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भगवान धन्वंतरि की अभिलाषा : कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को धन्वंतरि जयंती होती है। समुद्र मंथन के समय सर्वांग सुंदर, अलौकिक तेज से युक्त भगवान धन्वंतरि अवतरित हुए थे। आपकी चार भुजाओं में से एक भुजा में अमृत कलश, दूसरी में शंख, तीसरी में वनस्पति और चौथी भुजा में आयुर्वेद ग्रंथ था। श्रीमद् भागवत के अनुसार-
 
 
वे भगवत: साक्षात विष्णारंशांश संभव:।
धन्वंतरिरि‍ति ख्यात आयुर्वेद दुगिज्यभाक।
 
अर्थात भगवान विष्णु का अंश ही धन्वंतरि हैं जिन्होंने शरीर से संबंधित शास्त्र आयुर्वेद की रचना की है। महर्षि चरक ने धन्वंतरि की अभिलाषा के संदर्भ में लिखा है कि- 
 
ना हं कामये राज्यं न स्वर्ग न पुनर्भरम्।
कामये दु:ख तप्तानां प्राणीनामार्त नाशनं।
 
अर्थात न मैं राज्य चाहता हूं, न स्वर्ग और न मोक्ष। मैं तो दु:ख से संतप्त समस्त जीवों के दु:ख का नाश चाहता हूं। इस तरह धन्वंतरि प्राणीमात्र को दु:खों से मुक्त करना चाहते हैं। अत: आयुर्वेद चि‍कित्सा पद्धति की यह विशेषता है कि यह शारीर‍िक रोग के समय उत्पन्न मानसिक क्लेशों, मन के विकारों को भी रोग के साथ ही दूर करके व्यक्ति को पूरी तरह स्वस्थ बनाती है। यहां हमें निरोग होने और स्वस्थ होने के भेद को समझ लेना चाहिए। निरोग यानी रोगरहित होना व स्वस्थ होने का आशय है स्व में स्‍थित होना। स्व में व्यक्ति तब ही स्थित हो सकता है, जब वह तन-मन दोनों से स्वस्थ हो। अत: आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली का उद्देश्य व्यक्ति को स्वस्थ बनाना है जिससे वह स्व में स्‍थित हो सके। आयुर्वेद स्वस्थ रहने के लिए स्वास्थ्य रक्षा सिखाता है। इसलिए आयुर्वेद में आहार-विहार, आचार-विचार, रात्रिचर्या, दिनचर्या और ऋतुचर्या का वर्णन मिलता है। 

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