राष्ट्र-लक्ष्मी की वंदना करते हुए
क्यों न मनाएँ दीप पर्व
कुछ इस रूप में,
संस्कार की रंगोली सजे,
विश्वास के दीप जले,
आस्था की पूजा हो,
सद्भाव की सज्जा हो,
स्नेह की धानी हो,
प्रसन्नता के पटाखे,
प्रेम की फुलझड़ियाँ जलें,
आशाओं के अनार चलें,
ज्ञान का वंदनवार हो,
विनय से दहलीज सजे,
सौभाग्य के द्वार खुले,
उल्लास से आँगन खिले,
दान और दया के व्यंजन पकें,
मर्यादाओं की दीवारें चमकें,
प्रेरणा के चौक-माँडनें पूरें,
परंपरा का कलश धरें,
संकल्प का श्रीफल हो,
आशीर्वाद का मंत्रोच्चार,
मूल्यों का स्वस्तिक बने,
आदर्श का ओम,
सत्य का बने श्री
और प्रगति के पग,
शुभ की जगह लिखें कर्म
और लाभ की जगह कर्तव्य,
विजयलक्ष्मी की स्थापना हो,
अभय गणेश की आराधना
और अजेय सरस्वती की अर्चना।
सृजन की सुंदर आरती हो,
क्यों न ऐसी शुभ क्रांति हो।
मनाएं, स्वर्णिम पर्व
इस भाव रूप में,
अनुभाव रूप में।