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Diwali 2023 date: दिवाली कब से मनाई जाती है, जानें इतिहास

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History of Diwali: हिंदू माह कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को दिवाली का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 12 नवंबर रविवार 2023 को मनाया जाएगा। दीपावली यानी दिवाली का त्योहार भारत में प्राचीनकाल से ही मनाया जा रहा है। आखिर भारत में कब से यह त्योहार मनाया जा रहा है। इस त्योहार में दीपक और पटाखे का प्रचलन कब से प्रारंभ हुआ और दीवाली का क्या है प्राचीन इतिहास। आओ जानते हैं कि कब से मनाई जा रही है दिवाली।
 
क्यों मनाते हैं दिवाली : दिवाली पर माता लक्ष्मी और कालिका माता की पूजा होती है क्योंकि इस दिन दोनों ही देवियों का प्रकटन हुआ था।
 
दिवाली का इतिहास क्या है?
सिंधु घाटी सभ्यता के लोग मनाते थे दिवाली : सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी। मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इससे यह सिद्ध स्वत: ही हो जाता है कि यह सभ्यता हिन्दू आर्यों की ही सभ्यता थी। यानी 8 हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के लोग दिवाली मनाते थे।
 
यक्षों लोग मनाते थे दिवाली : प्राचीन भारत में कई तरह की जातियां हुआ करती थीं। जैसे देव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, रक्ष, दैत्य, दानव, मानव आदि। कहते हैं कि दिवाली पहला यक्षों का ही पर्व था। उनके साथ गंधर्व भी यह उत्सव मनाते थे। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे। 
 
कुबेर के साथ लक्ष्मी और गणेश पूजा का प्रचलन : सभ्यता के विकास के साथ यह त्योहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों दोनों में मान्यता रही है। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। कहते हैं कि लक्ष्मी, कुबेर के साथ गणेशजी की पूजा का प्रचलन भौव-सम्प्रदाय के लोगों ने किया।
 
ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेशजी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अत: कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णुजी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया है।
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आतिशबाजी की शुरुआत : मान्यता के अनुसार बिरंगी आतिशबाजी, स्वादिष्ट पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। उस काल में भले ही आज के काल की तरह के पटाखे नहीं होते थे परंतु आतिशबाजी जरूर होती थी। कहते हैं कि पहले 'बांस' को पटाखा माना जाता था। बांस को जब आग में फेंका जाता था तो अत्यधिक गर्मी होने पर यह आवाज के साथ फटते थे। कहते हैं कि चीन से पहले ही भारत में बारूद का ज्ञान 8वीं सदी में मौजूद था। इस काल के संस्कृत गृंथ वैशम्पायन के नीति प्रकाशिका में एक समान पदार्थ का उल्लेख मिलता है। प्राचीन भारत साल्टपीटर को अग्निचूर्ण या आग पैदा करने वाले पाउडर के रूप में जानता था। 13वीं शताब्दी में चीन ने बारूद को दुनिया से परिचित कराया।
 
स्कंदपुराण के खंड 2 में एक श्लोक में पटाखों का जिक्र है-
यह श्लोक है- तुलासंस्थे सहस्रांशी प्रदोषे भूतदर्शयो: । 
उल्काहस्ता नरा: नरा: कुर्पु: पितृणां मार्गदर्शनम्। 
 
यहां उल्काहस्ता से मतलब हाथ से अग्नि की बारिश यानी फुलझड़ी से है। त्रेता और द्वापर युग की कथाओं में आग्नेय अस्त्र का जिक्र है। एकनाथ की कविता रुक्मणी स्वयंवर में भी कृष्ण रुक्मणी के विवाह में आतिशबाजी का जिक्र मिलत है।
 
देवों का त्योहार : कहते हैं कि दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली के काल से प्रारंभ हुआ था। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बली की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। यह भी कहा जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बली को पाताल लोक का स्वामी बनाया था और इन्द्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जानकर प्रसन्नतापूर्वक दीपावली मनाई थी।
 
राम के काल में दिवाली : रामायण काल में दीपोत्सव मनाए जाने का जिक्र मिलता है। राम के अयोध्या आगमन के दौरान दीपोत्सव मनाया गया था। लंका से आने के बाद श्रीराम अयोध्या के पास एक गांव नंदीग्राम में रुके थे और बाद में दीपावली के दिन उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया था। यह भी कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने दिवाली के दिन को ही महाभारत के युद्ध के प्रारंभ का दिन चुना था, लेकिन इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता है।
 
महाभारत काल में दिवाली : ऐसा कहा जाता है कि दीपावली के एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था जिसे नरक चतुर्दशी कहा जाता है। इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियां मनाई थीं। दूसरी घटना श्रीकृष्ण द्वारा सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष लाने से जुड़ी है।


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