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विजयादशमी : शौर्य की विजय गाथा

- बल्लभ डोभाल

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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा लंकेश्वर रावण पर विजय की कहानी सनातन चली आई है। इसी स्मृति में विजय दशमी पर्व धूमधाम से मनाया गया है। आदिग्रंथ, ऋग्वेद में 'उत्तिष्ठितः जागृतः प्राप्यबरान्निबोधतः' कहा है, अर्थात्‌- ओ आर्यपुरुष उठ! विजय को प्राप्त कर! तेरी भुजाओं में बल है, तुझे कौन जीत सका है।

आदि सूत्र इस बात को स्पष्ट करते हैं कि वह तोप, तलवार से प्राप्त की जाने वाली विजय नहीं थी, उसके मूल में सेवाधर्म प्रमुख था, सदाचार था, मानवीय गहन संवेदना, दया, करुणा, प्रेम, सहानुभूति जैसे गुणों द्वारा प्राणी मात्र पर विजय प्राप्त करने की बात थी, जिन्हें प्रभु राम के जीवन में हम देखते हैं। राम के इसी आदर्श और गुणों का गायन संत तुलसीदास ने मानस ग्रंथ में किया है, जिसे रामलीला रूप में विजय दशमी पर्व पर मंचित किया जाता है।

ऐसे अनेक राष्ट्रीय पर्व हमारे इतिहास के महत्वपूर्ण अंग हैं। जो हमारी सांस्कृतिक विजय के प्रतीक बन जाते हैं। मानव जीवन में पर्वों-त्योहारों का महत्व यह है कि वे हमें अपने अतीत की समृद्धियों से जोड़ते हैं। भले वे रूढ़ परंपराओं के रूप में चले आ रहे हों, तो भी जन-जीवन को उनसे प्रेरणा मिलती है।

दीपावली, नवरात्र, रामनवमी, जन्माष्टमी, रक्षाबंधन और महावीर बुद्ध जैसे महापुरुषों की जयंतियां जैसे पर्व युग-युग के इतिहास के विभिन्न अध्यायों के रूप में हम देखते हैं। प्रत्येक पर्व मानव के जीवन पथ को प्रकाशित करता है। पर्वों को मनाने का अर्थ ही यह है कि उस इतिहास का नए सिरे से स्मरण कर जीवन में प्रगति लाई जाए। पर्व का अर्थ है क्रमिक विकास।

एक पर्वत के बाद दूसरे ऊंचे शिखर पर चढ़ना। पर्वों की उपयोगिता यह है कि वे राष्ट्र को उन्नति के शिखरों तक ले जाते हैं। राम की विजय दिखाकर रावण का पुतला फूंक देना मात्र पर्व नहीं है।

दीपावली की मिठाइयां और दीपका एक दिन के उत्सव के लिए नहीं हैं, उसमें राम की विजय उज्ज्वल आलोक बनकर हमारे अन्तस को जगमगा देता है। उस प्रकाश में हम अपने जीवन का मूल्यांकन करते हैं और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के इन प्रश्नों का उत्तर हमारा अन्तःकरण स्वयं देने लगता है। हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी? उत्तर में तब ऋग्वेदर के वे आदर्श मूर्त हो आते हैं जिसके जीवन में प्रकाश ही प्रकाश है।

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विजय दशमी पर भगवान राम का स्मरण हम करते हैं। रामलीला में उनके चरित्र और गुणों का गायन होता है। राम को अवतारी पुरुष कहा गया है। राजा दशरथ के घर उनका जन्म होता है। किंतु अपने पावन चरित्र और सद्गुणों के कारण वे भगवान कहलाने लगते हैं। गुणों ही की तो पूजा होती है। गुणों के कारण देवताओं की पूजा हम करते हैं। राम, कृपा आदि को पूजते हैं, दशरथ और बसुदेव की पूजा कोई नहीं करता।

कभी किसी कुल में ऐसे महापुरुष भी जन्म लेते हैं। जिनके पैदा होने से कुल का नाम ही बदल जाता है। सूर्यकूल में राम के पूर्वज राजा रघु इतने प्रतापी राजा हुए कि सूर्यकुल रघुकुल नाम से प्रख्यात हो जाता है। आगे राम रघुकुल सूर्य बनते हैं। साक्षात्‌ भगवान के रूप। प्राचीन ग्रंथों में भगवान, देवता, ईश्वर आदि नाम पारिभाषिक हैं, वहां भगवान शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्यः शौर्यस्य यशसः श्रियः
ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षषगंभग इतीरणा।

अर्थात्‌ संपूर्ण ऐश्वर्य, शौर्य, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य इन छह गुणों को भग कहा गया है। यह भग जिसे प्राप्त हो, उसी को भगवान कहा जाता रहा है। भगवान बनने के लिए उपर्युक्त छह गुणों में सामंजस्य होना जरूरी है,वे एक-दूसरे के पूरक हों। अकेले ऐश्वर्यशाली को कभी भगवान नहीं कहा गया, ऐश्वर्य के साथ शौर्य होना जरूरी है, वरना ऐश्वर्य को कोई छीन ले जाएगा।

ऐश्वर्य और शौर्य पाकर दूसरों पर अत्याचार करने वाला भी भगवान नहीं बन सका, उसका यशस्वी होना भी जरूरी है। वह दूसरों को आश्रय देने वाला भी बने और अपने आश्रितों को सन्मार्ग दिखाने का ज्ञान भी रखता हो। उक्त पांचों गुणों के रहते यदि त्याग भावना (वैराग्य) नहीं तो भी भगवान कहलाने योग्य नहीं। अतः सर्वस्व त्याग करने की क्षमता भी होनी चाहिए। इन छह गुणों का समुच्चय जिनके चरित्र में हुआ, वे भगवान कहलाने लगे।

विजयादशमी भगवान राम का उत्सव पर्व है, जहां राम के द्वारा पतित एक अहिल्या का उद्धार होता है। किंतु गाथा-साहित्य में आकर राम का नाम और चरित्र लाखों-करोड़ों के लिए पतित पावन बन जाता है। ऐसे पर्वों-त्योहारों को मनाने की सार्थकता तभी है जब उनके चरित्र और गुणों को हम अपने जीवन में उतारते हैं।

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