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क्यों विशेष है महापंडित रावण का चरित्र, जरूर पढ़ें

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प्रमोद भार्गव
 
राम प्रत्येक भारतीय के आराध्य देव हैं और वे भारत के कण-कण में रमें हैं। वे आदर्श पुरुष हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनकी तुलना में रावण को राक्षस, कुरूप, अत्याचारी, अतिकाई, आतताई आदि विकृति के विभिन्न प्रतीक रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन क्या यह संभव है कि समृद्ध, वैभवपूर्ण विशाल राष्ट्र का अधिनायक केवल दुर्गुणों से भरा हो ? वह भी ऐसा सम्राट जिसे राज्य सत्ता उत्तराधिकार में न मिली हो, बल्कि अपने कौशल, दुस्साहस और अनवरत संघर्ष से जिसने अपने समकालीन राजाओं को अपदस्थ कर सत्ता हासिल कर उसकी सीमाओं का लगातार विस्तार किया हो, ऐसा नरेश सिर्फ दुराचारी और अविवेकशील नहीं हो सकता ? ऐसे सम्राट की राजनैतिक व कूटनीतिक चतुराई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 
 
संस्कृत साहित्य के आदि कवि बाल्मीकि ने निष्पक्ष भाव से "रामायण" में रावण चरित्र के उदात्त मानवीय गुणों को सम्यक और विस्तृत रूप से उभारा है, लेकिन रामायण से ही रावण-चरित्र के गुणों में विरोधाभास होने के कारण रावण के अच्छे गुण हाशिए पर पहुंच गए और दुर्गुण आम चर्चा का विषय बन गए हैं। इस जन मान्यता ने रावण को कुरूप राक्षस का दर्जा दे दिया। जबकि सच में रावण ऐसा था नहीं। धारा के विपरीत अनुसंधान कर लिखे प्राचीन और आधुनिक भारतीय साहित्य का हम पूर्वाग्रही मानसिकता से परे अध्ययन करें तो यह सहज ही साफ हो जाता है कि रावण भी राम की तरह ऐतिहासिक महापुरुष था। एक महान जाति और संपन्न राष्ट्र का शासक था। प्रणेता था।
 
रावण का शरीर आर्य और अनार्य रक्त से निर्मित है। ब्रह्मा कुल में जन्में महर्षि पुलस्त्य का नाती होने के कारण वह आर्य ब्राह्मण है और दैत्यवंशी कैकसी-पुत्र होने से वह दैत्य है। लंका रावण के अधिकार में आने से पहले दैत्यों की थी। माली, सुमाली और माल्यवान नाम के तीन भाइयों ने अपने तेज, शौर्य और पराक्रम से त्रिकुट-सुबेल पर्वत पर लंकापुरी बसाई। इन तीनों का विवाह नर्मदा नाम की गंधर्वी ने अपनी तीन पुत्रियों से किया। इससे दैत्यवंश की वृद्धि हुई। इन तीनों ने लगातार लड़ाइयां जारी रख आसपास के द्वीपों पर भी कब्जा कर लिया और लंका में स्वर्ण, रत्न, मणि, माणिक्य का विशल भंडार इकट्ठा कर लिया। काश्यप सागर के किनारे बसे द्वीप में स्थित सोने की खानों पर आधिपत्य को लेकर देवासुर संग्राम हुआ। इस भयंकर युद्ध में ये तीनों भाई भी शामिल हुए। इसमें माली मारा गया और दैत्यों की हार हुई। देवताओं के आतंक से भयभीत होकर सुमाली और माल्यवान अपने परिवारों के साथ पाताल लोक भाग गए। इसके बाद लंका का वैश्रवा आर्य और देवों की सहमति से कुबेर लंका नरेश बना।
 
बाद में लंका पर दैत्यों के राज्य की पुनर्स्थापना करने की लालसा से सुमाली अपने ग्यारह पुत्रों और रूपवती कन्या कैकसी के साथ पाताल लोक में आंध्रालय आया। उसने पुलस्त्य पुत्र विश्रवा के आश्रम में शरण ली। सुमाली ने कैकसी को विश्रवा की सेवा में अर्पित कर दिया। विश्रवा कैकसी पर मोहित हो गए । उनके संसर्ग से कैकसी ने तीन पुत्रों रावण, कुंभकरण, विभीषण और एक पुत्री शूर्पनखा को जन्म दिया। इन संततियों ने यहीं वेदों का अध्ययन और युद्धाभ्यास किया। मसलन रावण सुंदर, शील, तेजस्वी और तपस्वी माता-पिता की वर्णसंकर संतान था। पांडित्य गुणों का समावेश उसके चरित्र में बाल्यकाल से ही हो गया था।
 
एक दिन कुबेर अपने पिता विश्रवा से मिलने पुष्पक विमान से आया। कैकसी ने रावण का परिचय कुबेर से कराया। रावण कुबेर से प्रभावित तो हुआ लेकिन उसके ऐश्वर्य से रावण को ईर्ष्या भी हुई। यहीं से रावण में प्रतिस्पर्धा करने और महत्वाकांक्षी होने की भावनाएं बलवती हुईं और उसने कुबेर से बड़ा व्यक्ति बनने का व्रत लिया।
 
बाद में सुमाली ने ही रावण को बताया कि लंका मेरी और मेरे सहोदरों की थी। सुमाली ने यहीं से रावण को लंका पर कब्जा कर लेने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया। रावण ने कई द्वीपों पर विजय पताका फहराते हुए बाली और सुंबा द्वीपों पर रक्ष संस्कृति की स्थापना का झंडा फहरा दिया। सुंबा में ही रावण का परिचय दनु पुत्र मय और उसकी सुंदर पुत्री मंदोदरी से हुआ। मय ने रावण को अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि देवों ने उसका नगर "उरपुर" और उसकी पत्नी हेमा को छीन लिया है। यहीं मय ने रावण के पराक्रम को स्वीकारते हुए मंदोदरी से विवाह कर लेने का प्रस्ताव रावण के सामने रखा। रावण ने धर्मपूर्वक अग्नि को साक्षी मानकर वैदिक पद्धति से मंदोदरी के साथ विवाह किया।
 
लंका को लेकर रावण और कुबेर में विवाद शुरू हुआ। रावण लंका में "रक्ष" संस्कृति की स्थापना के लिए अटल था। जबकि कुबेर विष्णु का प्रतिनिधि होने के कारण "यक्ष" संस्कृति ही अपनाए रखना चाहता था। बाद में पिता विश्रवा के आदेश पर कुबेर ने लंका छोड़ी और रावण लंका का एकछत्र अधिपति बन गया। इस तरह रावण ने अपने शौर्य और साहस के बल पर पार्श्ववर्ती द्वीप समूहों को जीत कर देव, दैत्य, असुर, दानव, नाग और यक्षों को अपने अधीन कर लिया। और इन्हें संगठित कर "राक्षस" नाम देकर "रक्ष" संस्कृति की स्थापना की।


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