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दशहरा के अलग-अलग रंग और मान्यताएं

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हमें फॉलो करें दशहरा के कई रंग
, रविवार, 13 अक्टूबर 2013 (12:46 IST)
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नवरात्रि के 9 दिन बाद विजया दशमी यानी दशहरा आता है। दशहरा को अधर्म पर धर्म की विजय पर पर्व माना जाता है। यह एक ऐसा पर्व है जिसे पूरे देश में एक ही दिन मनाया जाता है,लेकिन इस एक पर्व की विविधता उत्तर से दक्षिण तक अलग-अलग है। देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में इसके अलग-अलग प्रचलित नामों की ही तरह इसे मनाने के तरीके भी अलग-अलग हैं। साथ ही देश के अलग-अलग प्रांत में अलग-अलग तरीके से दशहरा मनाए जाने के पीछे कुछ दिलचस्प कहानियां और मान्यताएं हैं और सभी जगह इसे मनाने का अंदाज भी अलग-अलग हैं। लेकिन पूरे भारत में इसे बड़े ही उत्‍साह और धार्मिक निष्‍ठा के साथ मनाया जाता है। आज हम आपको बताते हैं कि असत्य पर सत्य की विजय के इस पर्व को देश के विभिन्न भागों में कैसे मनाया जाता है........

हिमाचल के कुल्लू का अनोखा दशहरा-
हिमाचल के कुल्लू का दशहरा एक दिन नहीं बल्कि सात दिन तक मनाया जाता है। जब देश के विभिन्न भागों में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। आश्विन महीने की दसवीं तिथि को दशहरा उत्सव शुरू होने के कारण कूल्लू में दशहरा को दशमी त्योहार कहते हैं। कुल्लू दशहरा में काम,क्रोध,मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है।

यहां के कुल्लू दशहरा का संबंध रामायण से नहीं है। कुल्लू दशहरा का संबंध राजा जगतसिंह से है। कथा है कि राजा जगतसिंह एक बार मणिकर्ण तीर्थ की यात्रा पर निकले। मार्ग में उन्हें पता चला कि एक ब्राह्मण के पास कीमती रत्न है। राजा ने ब्रह्मण से उस रत्न को पाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया। राजा के व्यवहार से ब्राह्मण दुखी हुआ और राजा को श्राप दे दिया। इसके बाद ब्राह्मण ने परिवार समेत आत्महत्या कर लिया।

ब्राह्मण के श्राप से राजा का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजा को श्रापमुक्त होने के लिए एक साधु ने रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। आयोध्या से रघुनाथ जी की मूर्ति लाई गई। राघुनाथ जी की स्थापना के बाद राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा। राजा जगतसिंह ने पूरा साम्राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया। इस समय से ही कुल्लू में विशेष दशहरा उत्सव मनाया जाता है। उत्‍सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। कुल्लू के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता दशहरा उत्सव में आकर शामिल होते हैं।


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मैसूर का राजशाही दशहरा-
उत्तर भारत की तरह दक्षिण भारत में भी दशहरा काफी उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। दक्षिण भारत में मैसूर का दशहरा देश-विदेश में प्रसिद्ध है। कुल्लू दशहरा की तरह मैसूर का दशहरा भी राम रावण के युद्घ से संबंधित नहीं है। मैसूर का दशहरा चामुंडेश्वरी देवी जिन्हें भगवती दुर्गा का रूप माना जाता है उनकी आराधना और भक्ति से जुड़ा पर्व है। यहां के लोगों की मान्यता है कि देवी चामुंडेश्वरी ने महिषासुर का वध किया जिससे बुराई पर अच्छाई की जीत हुई। इस उपलक्ष्य में दशहरा का त्योहार मनाया जाता है।

राजतंत्र समाप्त हो जाने के बाद भी दशहरे के दिन मैसूर में राजकीय आन-बान शान की झलक मिलती है। मैसूर के राजा हाथी, घोड़े, रथ और सजे हुए सेवकों की कतारों के साथ मां चामुंडेश्वरी की आराधना के लिए चामुंडी पहाड़ी पर बने मंदिर में जाते हैं।

इस मौके पर मैसूर में चामुंडी पहाड़ी को रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता है। चामुंडेश्वरी देवी इसी पहाड़ पर विराजमान हैं। दस दिनों तक चलने वाले विजयदशमी उत्सव की शुरूआत मां चामुंडेश्वरी की विशेष पूजा अर्चना होती है। मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है।

वाडेयार राजवंश के शासक कृष्णराज वाडेयार ने मैसूर में दशहरा उत्सव की शुरूआत की। वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है। मैसूर 'दशहरा उत्सव' के आखिरी दिन कई सजे हुए हाथियों की शोभायात्रा निकलती है। इनका नेतृत्व करने वाले विशेष हाथी की पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा रखी होती है।


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बंगाल का सिंदूर खेल दशहरा-
पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा तो सारे भारत में मशहूर है। यहां दशहरे के दिन भी बड़े अलग अंदाज में पूजा-अर्चना होती है। बांग्ला समाज में मान्यता है कि मां भगवती महिषासुर का वध करके आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को सपरिवार धरती पर अपने मायके आती हैं। आश्विन शुक्ल दसवीं तिथि को माता पृथ्वी से विदा हो जाती हैं।

दशहरे के दिन माता की पूजा अर्चना के बाद पुरूष एक दूसरे को गले लगाकर शुभकामना देते हैं इसे 'कोलाकुली' कहा जाता है। महिलाएं माता को सिंदूर अर्पित करके सुहाग की सलामती की कामना करती हैं।

इसके बाद महिलाएं आपस में एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। इसे सिंदूर खेल कहा जाता है। इसलिए बंगाल के दशहरा को सिंदूर खेल दशहरा भी कहते हैं। सिंदूर खेल के बाद माता का विसर्जन किया जाता है। लोग अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां को विदाई देते हैं।



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कश्‍मीर का भक्तिमय दशहरा-
कश्मीर में नवरात्र के दौरान लोग नौ दिनों तक उपवास रखकर माता की आराधना करते हैं। माता को प्रसन्न करने के लिए यहां माता के भक्त नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर भक्ति में लीन रहते हैं। कश्मीर में एक प्राचीन परंपरा है कि नवरात्र के नौ दिनों में यहां के लोग झील के बीच बसे माता खीर भवानी के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करते हैं।

खीर भवानी के विषय में एक प्रचलित कथा है कि देवी ने अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया है कि किसी अनहोनी से पहले झील का पानी नीला हो जाएगा। माता खीर भवानी का संबंध भी राम रावण युद्ध से संबंधित है। मान्यता है कि राम रावण युद्ध के समय माता खीर भवानी लंका में निवास करती थीं। माता ने हनुमान से कहा कि वह श्रीलंका में नहीं रहना चाहतीं। हिमालय के कश्मीर क्षेत्र में जहां रावण के पिता पुलतस्य मुनी तपस्या कर रहे हैं,उस स्थान पर जाना चाहती हैं।

इसके बाद माता ने शिला का रूप धारण किया। हनुमान ने माता को कंधे पर बैठाकर कश्मीर पहुंचा दिया। कश्मीर के लोग दशहरे के दिन माता खीर भवानी की पूजा के बाद नौ दिनों का व्रत समाप्त करते हैं।



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दिल्ली का रावणवध दशहरा-
उत्तर भारत में दशहरा मुख्य रूप से राम और रावण के युद्घ से संबंधित है। दिल्ली,पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में रावण को अधर्म का प्रतीक माना जाता है और भगवान राम को धर्म का प्रतीक। दशहरा से कई दिनों पहले से लोग इन क्षेत्रों में रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण का पुतला बनाना शुरू कर देते हैं। दशहरा के दिन इनके पुतलों को जलाकर अधर्म पर धर्म की जीत का उत्सव मनाया जाता है। रावण दहन का नजारा और आतिशबाजी बेहतरीन होती है। माना जाता है कि दशहरा के मौके पर रावण दहन की परंपरा की शुरूआत अयोध्या से हुई है।

उत्तर भारत के कई क्षेत्रो में नवरात्र के नौ दिनों में रामलीला का मंचन किया जाता है और दशहरे के दिन रावण वध के साथ रामलीला का समापन होता है। पूजा पंडालों एवं घर में स्थापित कलश के नीचे बोए गए जयंती को काटकर घर के बड़े अथवा पुजारी आशीर्वाद सहित सिर पर जयंती रखते हैं। मान्यता है कि आशीर्वाद सहित जयंती प्राप्त होने से आरोग्य सुख की प्राप्ति होती है।



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