नवरात्रि के 9 दिन बाद विजया दशमी यानी दशहरा आता है। दशहरा को अधर्म पर धर्म की विजय पर पर्व माना जाता है। यह एक ऐसा पर्व है जिसे पूरे देश में एक ही दिन मनाया जाता है,लेकिन इस एक पर्व की विविधता उत्तर से दक्षिण तक अलग-अलग है। देश के विभिन्न हिस्सों में इसके अलग-अलग प्रचलित नामों की ही तरह इसे मनाने के तरीके भी अलग-अलग हैं। साथ ही देश के अलग-अलग प्रांत में अलग-अलग तरीके से दशहरा मनाए जाने के पीछे कुछ दिलचस्प कहानियां और मान्यताएं हैं और सभी जगह इसे मनाने का अंदाज भी अलग-अलग हैं। लेकिन पूरे भारत में इसे बड़े ही उत्साह और धार्मिक निष्ठा के साथ मनाया जाता है। आज हम आपको बताते हैं कि असत्य पर सत्य की विजय के इस पर्व को देश के विभिन्न भागों में कैसे मनाया जाता है........
हिमाचल के कुल्लू का अनोखा दशहरा-
हिमाचल के कुल्लू का दशहरा एक दिन नहीं बल्कि सात दिन तक मनाया जाता है। जब देश के विभिन्न भागों में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। आश्विन महीने की दसवीं तिथि को दशहरा उत्सव शुरू होने के कारण कूल्लू में दशहरा को दशमी त्योहार कहते हैं। कुल्लू दशहरा में काम,क्रोध,मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है।
यहां के कुल्लू दशहरा का संबंध रामायण से नहीं है। कुल्लू दशहरा का संबंध राजा जगतसिंह से है। कथा है कि राजा जगतसिंह एक बार मणिकर्ण तीर्थ की यात्रा पर निकले। मार्ग में उन्हें पता चला कि एक ब्राह्मण के पास कीमती रत्न है। राजा ने ब्रह्मण से उस रत्न को पाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया। राजा के व्यवहार से ब्राह्मण दुखी हुआ और राजा को श्राप दे दिया। इसके बाद ब्राह्मण ने परिवार समेत आत्महत्या कर लिया।
ब्राह्मण के श्राप से राजा का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजा को श्रापमुक्त होने के लिए एक साधु ने रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। आयोध्या से रघुनाथ जी की मूर्ति लाई गई। राघुनाथ जी की स्थापना के बाद राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा। राजा जगतसिंह ने पूरा साम्राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया। इस समय से ही कुल्लू में विशेष दशहरा उत्सव मनाया जाता है। उत्सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। कुल्लू के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता दशहरा उत्सव में आकर शामिल होते हैं।