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"आप" से पहले आज...

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हमें फॉलो करें दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013
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जयदीप कर्णिक

आज इसलिए की कल तो सभी लिखेंगे। नतीजे आने के बाद ही लिखा भी जाना चाहिए। चारों राज्यों के नतीजों पर निगाह है और चारों ही अहम हैं। एक्जिट पोल आ चुके हैं और कभी बहुत भरोसेमंद नहीं रहे। राजस्थान में कभी एक सरकार दोबारा नहीं आ पाई, छत्तीसगढ़ में क्या भाजपा को टिकट वितरण और सावधानी से करना था और मध्यप्रदेश में कांग्रेस थोड़ा दम और लगाती तो क्या होता ये सब बात भी होगी।

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अभी बात दिल्ली और "आप" की। आम आदमी पार्टी को बहुत कम सीटें मिलें, 15-18 सीटें मिलें या वो एकदम सबको चौंकाते हुए परचम ही लहरा दे, जो भी होगा, सबका आकलन होगा। अहम बात ये है कि देश की राजनीति ने एक नया प्रयोग देखा है। घर में बैठकर व्यवस्था को कोसने की बजाय एक आंदोलन हुआ। निश्चित ही अन्ना हजारे की मौजूदगी से ही आंदोलन जनभावना का वो ज्वार पैदा कर सका जो अन्य किसी के नेतृत्व में संभव नहीं था। व्यापक जनसमर्थन और सब कुछ बदल देने के जज़्बे के इस ज्वार ने जल्द ही कम होते संख्याबल और घटते जादू पर सवाल आगे क्या? के सवालों का भाटा भी देखा।

ज्वार-भाटे की इस ऊहापोह के बीच, इससे पहले कि पानी और नीचे उतरे, अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने राजनीति की डोंगी बनाकर सफर पर चल देना ही उचित समझा। क्या लक्ष्य शुरू से ये ही था? इस सवाल पर बहस हो सकती है। पर ये तय था कि‍ इस टीम को लहरों के रहमो करम पर ज्वार-भाटे में डूबते-उतरते मंजिल तलाशना गवारा नहीं था। इसीलिए वो तो बस अपनी डोंगी लेकर चल पड़े।

सामाजिक आंदोलन के पीछे खड़ी जनता को देखकर घबरा रहे राजनेता तो ख़ैर चाहते भी यही थे। जब आंदोलन चरम पर था तो राजनेताओं की स्थिति देखने लायक थी, फिर वो चाहे किसी भी दल के रहे हों। उन्हें ये ही नहीं सूझ रहा था कि उनका सिंहासन हिलाने दौड़ी आ रही इस जनता को कैसे संभालें? कभी वो आंदोलन का बहिष्कार कर इसे हास्यास्पद बता रहे थे और कभी ख़ुद आंदोलन के मंच से भाषण दे रहे थे। कभी संसद में उन पर गरिया रहे थे, कभी संसद की "भावना" उनके पक्ष में बताकर मेज पीट रहे थे तो कभी ख़ुद आंदोलन का हिस्सा हो रहे थे। उन्होंने कई-कई बार ललकार कर कहा कि आप भी राजनीति में आ जाओ फिर बात करेंगे। उनका मकसद तो ये था कि दूसरे अखाड़े का पहलवान जो ज़्यादा ताकतवर दिखाई दे रहा है उसे पहले अपने अखाड़े में बुलाओ। यहाँ के दाँव-पेंच और मिट्टी से हम बेहतर परिचित हैं। यहाँ तुम भी हमारे जैसे हो जाओगे और फिर यहाँ के उस्ताद तो हम हैं, तुम्हें बड़ा मज़ा चखाएँगे।

दरअसल व्यवस्था बदलने को आतुर लोगों के पास विकल्प भी क्या हैं? सामाजिक और सतत प्रयत्नों के जरिए एक क्षेत्र की तस्वीर बदलने से आगे बढ़ते हुए अगर पूरे देश की तस्वीर बदलनी हो तो या तो आप अमिताभ बच्चन की फिल्म "इंकलाब" की तरह सदन में घुसकर सारे नेताओं को गोली मारो और राकेश ओमप्रकाश मेहरा की "रंग दे बसंती" की तरह उनको मारते हुए ख़ुद भी मिट जाओ या फिर मणि रत्नम की "युवा" की तरह व्यवस्था का हिस्सा बनकर बदलाव लाओ। सवाल ये है कि सबकुछ मिटा देने के बाद क्या? नई इबारत तो तब भी लिखनी ही पड़ेगी। मिस्र में होस्नी मुबारक को पलट देने वाली क्रांति के बाद क्या ख़ुशहाली आ गई? इसीलिए सामाजिक आंदोलन के जहाज से राजनीति की डोंगी पर सवार अरविंद केजरीवाल की टीम को बदलाव की चाह रखने वाले सभी अपनी हथेली की थपकी से आगे बढ़ा रहे हैं।

अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की जिम्मेदारी बड़ी है। सीटों का नतीजा जो भी हो पर जो माहौल बना उसने बड़े राजनीतिक दलों को भी सोचने पर तो मजबूर कर ही दिया है
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हकीकत ये है की सड़ांध मारती व्यवस्था को लोग बदलना चाहते हैं। वो व्यवस्था, जिसका वो ख़ुद हिस्सा हैं और बुराई में शामिल हो जाने के लिए ख़ुद को कोसते हैं और अपने ही बदन से आ रही बदबू से निजात पा लेना चाहते हैं। ऐसे भी युवा हैं जो इसी तरह अपनी नौकरी और घर छोड़कर बदलाव के लिए चल देना चाहते हैं पर हालात और अंजाम की दुहाई देकर ऐसा कर नहीं पा रहे। पर वो चाहते हैं कि ऐसा हो जाए बस। इसीलिए उन्हें अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी पर लगी तोहमतें भी सुनाई नहीं देती। जिस अवतार का वो सपना देखते थे उसी को, उसकी छवि को अरविंद केजरीवाल में नत्थी कर दिया बस! और दिल में ये उम्मीद ‍कि काश उनको लेकर जो भी ग़लत कहा जा रहा है वो सब झूठ हो और हमारा अवतार सच्चा हो!!

इसीलिए अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की जिम्मेदारी बड़ी है। सीटों का नतीजा जो भी हो पर जो माहौल बना उसने बड़े राजनीतिक दलों को भी सोचने पर तो मजबूर कर ही दिया है। उन्हें "राजनीति" में तो ऐसा ही होता है की सोच से बाहर आना होगा। ऐसा भी नहीं है कि सारे ही नेता ख़राब हैं। लेकिन वो उस समझौतावाद के शिकार हो गए हैं जहाँ हर हाल में सत्ता ही लक्ष्य है, चाहे वो किसी भी रास्ते से आए। वो ये सब जनता के नाम पर करते हैं और जनता इस सब से ऊब चुकी है। ये संदेश दे पाना भी "आम आदमी पार्टी" के लिए सीटें जीतने से ज्यादा बड़ी जीत है।

अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को तो अभी लंबा रास्ता तय करना है। उन्हें ना केवल अपने पैसे का, अन्ना की चिट्ठी का और हर उस आरोप का जो उन पर लगा है, जवाब देना है बल्कि ये संदेश भी देना है कि डोंगी के सहारे भी राजनीति के तूफानी दरिया को पार किया जा सकता है। उन्हें ये भी बताना है कि हम तुम्हारे ही अखाड़े में तुम्हें पटखनी दे सकते हैं, बिना तुम्हारे गंदे दाँव-पेंच अपनाए। अपने साहस और सच के बल पर। .... आने वाले कल का इंतजार है... कई मायनों में।

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