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इंक़लाब तो चाहिए.... पर कैसे?

15 अगस्त 2013 – विशेष संपादकीय

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जयदीप कर्णिक

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आज जब हम देश के 67वें स्वाधीनता दिवस की दहलीज पर खड़े हैं तो एक अजीब सा सन्नाटा चारों ओर पसरा हुआ है। देश की सरहदों पर गोलियाँ चल रही हैं और देश के भीतर भी किश्तवाड़ से लेकर केरल तक उथल-पुथल मची हुई है। इस सबके बीच भी एक अजीब-सी चुप्पी है जो इस शोर के बीच में भी ज़िन्दा है...जिसे सुनने के लिए थोड़ा ध्यान से कान देना पड़ेगा। ये एक ऐसी ख़ामोशी है, जिसे पढ़ा जा सकता है, शांति और संघर्ष की तमाम इबारतों के बीच। ये ख़ामोशी आपसे बात भी करेगी अगर आप इससे दूर ना भागना चाहें ... ये बताएगी कि 66 साल का हिंदुस्तान इतना बेचैन होते हुए भी इतना ख़ामोश क्यों है?

दरअसल ये चुप्पी, ये शून्य हम सभी के दिलों में रहकर हमें इसलिए परेशान कर रहा है क्योंकि इस वक्त इस ख़ामोशी की आँख में आँख डालकर बात करने की हिम्मत हम नहीं जुटा पा रहे। हमारे पास उसके सवालों के जवाब नहीं हैं... नहीं है वो साहस कि हम उससे बात कर पाएँ...। हम आखिर उसे कैसे बताएँ कि सामाजिक आंदोलन के जरिए व्यवस्था बदल देने का ख़्वाब अचानक क्यों बिखर गया? अन्ना हजारे अचानक परिदृश्य से गायब क्यों हो गए? वो अन्ना हजारे जिनकी अंगुली थामकर हम सोचते थे कि उस हिंदुस्तान तक पहुँच जाएँगे जिसकी तलाश 15 अगस्त 1947 से हर सुबह हम करते हैं।

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हम कैसे बताएँ कि जागती आँखों से देखा वो सपना क्यों बिखर गया? हम कैसे बताएँ कि निर्भया के साथ दिल्ली में हुए बलात्कार और उसकी मौत को लेकर उठा उबाल क्यों ठंडा पड़ गया? हम कैसे बताएँ कि अपनी आँखों के सामने अरबों करोड़ के घोटाले देखे, रुपए को डॉलर के सामने घुटने टेकते देखा, चीन को हमारी सीमाओं को लाँघते देखा, हमने देखा कि वो हमारे जवानों के सिर काट कर ले गए, हमने देखा कि फिर पाँच ताबूत हमें तोहफे में भेजे गए, हमने देखा कि आरटीआई को लेकर सारे दल एक हो गए जैसे कि वो वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए हो जाते हैं, हमने पानी और पहाड़ के साथ आई आपदा के साथ मानवता को भी बहते देखा... हमने देखा और हम सुन रहे हैं कि चुनाव की आहट नारों और रैलियों के साथ ही अलगाव की कोशिशों में भी सुनाई दे रही है, खाद्य सुरक्षा, तेलंगाना और किश्तवाड़ में भी लोगों को वोट दिखाई दे रहे हैं।

....ये सब तो है ही इसके साथ ही हम रोज़ देखते हैं सड़कों के गड्ढे, बदबूदार नालियाँ, कचरे के ढेर, बंद पड़ी स्ट्रीट लाइटें और देखते हैं नजूल की जमीन पर तनी इमारतें। हम ख़रीदते हैं 90 रुपए किलो प्याज, 60 रुपए किलो हरी सब्जी और ख़रीदते हैं 80 रुपए किलो हरी मिर्च ... फिर भी हम सब सहते हैं, चुप रहते हैं। क्योंकि हमें तो चाहिए एक गाँधी जो हमारे लिए नंगा रहे और चाहिए सुभाषचंद्र बोस जो लड़े हमारी लड़ाई या चाहिए भगतसिंह जो हमारे लिए फाँसी चढ़ जाए। इसीलिए हम झूम पड़े एक अन्ना हजारे पर कि वो ले जाएँ हमें उस स्वर्ग से सुंदर हिंदुस्तान की ओर...। व्यवस्था की अट्टालिकाओं से भिड़ ले वो अकेला ... हम भले ही वोट देने भी ना जाएँ। फिर कैसे बदलेगा हिंदुस्तान ..... कैसे आएगा
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इंकलाब... यही सब तो पूछेगी वो खामोशी हमसे.... आखिर क्या जवाब देंगे हम? और किस मुँह से? उस मुँह से जिस पर कुछ ना कर पाने का अपराध बोध साफ पढ़ा जा सकता है? मजबूरी की आड़ में हम खुद जिस व्यवस्था का हिस्सा हैं, उस व्यवस्था को कोसें भी तो कैसे?


तो क्या यही सब चलता रहेगा? क्या हम इस ख़ामोशी को ओढ़कर सो जाएँगे और बन जाएँगे इस चुप्पी का हिस्सा? नहीं..... है इस देश में अभी दुर्गा की शक्ति जो इस ख़ामोशी को मुँह चिढ़ाने नहीं देगी, हैं कुछ खेमका जिनकी आवाज जब-तब इस चुप्पी को तोड़ती है, हैं डॉ. जयप्रकाश जैसे दीवाने जिनकी आँखों में लोकसत्ता का ख़्वाब जिंदा है। नरेंद्रसिंह की चिता से भी आवाज उठेगी, जो चीरेगी श्मशान का सन्नाटा। व्यर्थ नहीं जाएगा सत्येंद्र दुबे का बलिदान और ये तमाम कोशिशें गाएँगी आजादी का नवगीत, अगर हमारा भी स्वर इसमें स्वर मिला ले.... क्या आप तैयार हैं?

आप सभी को आजादी की सालगिरह मुबारक...

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