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इस मिर्च की जलन को सीने में उतार लो...

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जयदीप कर्णिक

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बाईस जुलाई 2008 को जब संसद में नोटों की गड्डियाँ लहराई गई थीं, तब उसे देश के संसदीय इतिहास का काला दिन बताया गया था। उस ख़बर को पहले पन्ने पर छापते हुए 'नईदुनिया' में एक तस्वीर को पूरा काला छापा गया था, क्योंकि जो हुआ वो संसद और उसकी गरिमा पर एक स्याह धब्बा था। वो काली तस्वीर इसलिए थी कि हम शर्मसार हों, जिन्होंने किया वो इस कालिख का अर्थ समझें और आगे ऐसा ना होने दें। ...पर वो तस्वीर तो शुरुआत भर थी। आज 13 फरवरी 2014 को लोकसभा में जो हुआ उसके लिए क्या किया जाए? क्या अख़बारों के पूरे पन्ने, टीवी की स्क्रीन और वेबसाइट पूरी काली कर दी जाएँ? शायद मिर्ची फेंके जाने, काँच फोड़े जाने और माइक को तोड़कर चाकू के रूप में इस्तेमाल किए जाने की घटना के दर्द और उससे उपजे क्षोभ को व्यक्त करने के लिए ये सब भी पर्याप्त नहीं होगा।

विजयवाड़ा के कांग्रेस से निलंबित किए जा चुके सांसद लगडपति राजगोपाल और तेलुगुदेशम के सांसद वेणुगोपाल रेड्डी ने लोकसभा में जो कुछ किया वो बहुत अनअपेक्षित और आश्चर्यजनक ना होते हुए भी दु:खद अवश्य था। तेलंगाना के मुद्दे पर जब भी ये बिल सदन में पेश किया जाएगा, कुछ हंगामा होगा ये अंदेशा पहले से था। इसीलिए आज ख़ासतौर पर सुरक्षा चाक-चौबंद रखी गई थी। पर सांसदों की जाँच उस तरीके से नहीं की जाती। 2001 में जब संसद पर हमला हुआ था तो वो आतंकवादियों द्वारा बाहर से किया हुआ हमला था। पर यदि सांसद ख़ुद ही अपने साथी सांसदों पर यों हमला कर दे तो आप क्या करेंगे? बागड़ ही ख़ेत को खाने लगे या चौकीदार ख़ुद चोरी कर ले तो आप क्या करेंगे?

अगर ये सब कांग्रेस द्वारा पहले से प्रायोजित ड्रामा था, जैसा कि भाजपा नेता सुषमा स्वराज या कुछ अन्य का मानना है, तो भी और अगर ये ख़ुद इन सांसदों के दिमाग की उपज है तो भी ये घटना निश्चित ही केवल शर्म और निंदा करके छोड़ देने लायक नहीं है। जब संसद में लोकपाल बिल पेश किया गया तो भी हंगामा हुआ, राजद सांसद राजनीति प्रसाद के हाथों बिल की प्रति फाड़ दी गई। तब उस विधेयक को रुकवाने की मंशा थी। आज विधेयक को हंगामे के बीच पेश करने की मंशा थी। आज बात और आगे तक चली गई। यूक्रेन की संसद में लात-घूँसे चलने की तस्वीर कुछ दिन पहले ही छपी थी। हमारे यहाँ कुछ विधानसभाओं में माइक तोड़े जाने और धक्का-मुक्की के दृश्य हमने देखे हैं। कर्नाटक विधानसभा में दो विधायकों को मोबाइल पर अश्लील क्लिप देखते हुए मीडिया के कैमरे ने पकड़ा। पर लोकसभा में आज के दृश्य दिल को गहरा धक्का पहुँचा गए। ये भेड़िए के आने का डर सच होने जैसा है। और अब जब भेड़िया सचमुच आ गया है तो किसी को कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करें? ख़ुद लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि वो सन् 1970 से संसद में सक्रिय हैं पर आज जो हुआ वो उन्होंने कभी नहीं देखा और इसको देखकर उन्हें गहरा दु:ख है। इंदौर से सांसद सुमित्रा महाजन ने कहा कि अपने दो दशक के सांसद काल में उन्होंने ऐसी घटना नहीं देखी और ये शर्मनाक है।

लोकसभा में छिड़की गई इस मिर्च की जलन हर उस भारतवासी के सीने में उतर जाना चाहिए, जो भारत को एक गरिमासंपन्न राष्ट्र के रूप में देखना चाहता है
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सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणियों में मैंने पाया कि लोग कह रहे हैं कि इसमें कोई अनोखी बात नहीं, सड़क पर भी सब हो ही रहा है तो संसद में क्यों नहीं। एक टिप्पणी तो ये थी इससे लोकतंत्र मजबूत होगा!! लोगों की आँख में धूल झोंककर वोट कबाड़ने वाले नेता अगर यों खुलेआम संसद में मिर्च झोंकेंगे तो लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा पता नहीं। मिर्च का इस्तेमाल लुटेरे अपनी लूट को अंजाम देने के लिए भी करते हैं। सांसदों ने लोकसभा में मिर्च झोंककर देश की लोकतांत्रिक अस्मिता लूटने की कोशिश की है। इसे चुपचाप देखने वाले तो समझदार होते हुए भी 'भीष्म और द्रोण' की कतार में शामिल हो गए। मुद्दों पर राय रखना, विरोध करना, वैचारिक आक्रोश और उत्तेजना होना निश्चित ही लोकतंत्र को मजबूत करेगा... पर इस विरोध के तरीके पर निश्चित ही मर्यादा तय होनी चाहिए।

तेलंगाना का गठन एक अलग और पेचीदा मुद्दा है। बड़े राज्य को छोटी प्रशासनिक इकाई में बाँट देने से तंत्र सुचारु होता हो, क्षेत्र का विकास होता हो, जन आकांक्षाओं की पूर्ति होती हो तो अलग बात है। पर अगर इससे केवल एक और मुख्यमंत्री की कुर्सी, राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने का एक और मंच, सचिवालय और कारों का काफिला, राष्ट्रीय राजनीति में ब्लैकमेल कर सकने का एक और जरिया तैयार होता हो तो फिर जनता की आँखों में मिर्च ही झोंकी जा रही है।

वोट और कुर्सी की ख़ातिर राजनेताओं द्वारा जनता की आँख में मिर्च झोंकने का सिलसिला नया नहीं है, बस हम उसकी जलन की तीव्रता को महसूस नहीं कर पाते। अब महत्वाकांक्षाओं का टकराव इस मोड़ पर आ गया है कि राजनेता ही एक-दूसरे की आँख में मिर्च झोंक रहे हैं- खुलेआम। इसको केवल शर्मनाक, निंदनीय या लोकतंत्र और संसदीय इतिहास पर काला धब्बा कह देने भर से काम नहीं चलेगा। लोकसभा में छिड़की गई इस मिर्च की जलन हर उस भारतवासी के सीने में उतर जाना चाहिए, जो भारत को एक गरिमासंपन्न राष्ट्र के रूप में देखना चाहता है। ऐसा हो सकने के लिए सीने की इस जलन से सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर ऐसा व्यापक और क्रांतिकारी परिवर्तन करना होगा, जो हमें पहले अपने चरित्र और जवाबदेही का बोध करा सके। वर्ना यों लोकसभा में मिर्च छिड़ककर हमारे लोकतंत्र के उन घावों को हमेशा हरा ही रखा जाएगा, जो हमारी स्वार्थी सोच, ख़राब राजनीतिक व्यवस्था, कट्टर होते जा रहे क्षेत्रवाद और तंत्र में लगी बीमारी से उपजे हैं।

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