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उस सुबह के इंतज़ार में...

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जयदीप कर्णिक

आज़ादी का मध्य रात्रि को मिल जाना एक संयोग नहीं बल्कि एक संकेत था, एक बड़ा प्रतीक। इसी प्रतीक के कारण ये वाक्य एक मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा कि 14-15 अगस्त कमध्य रात्रि को आज़ादी तो मिल गई पर सवेरा अभी तक नहीं हुआ। 67 साल हो जाने के बाद भी उस सुनहरी सुबह के इंतज़ार में करवटें क्यों बदली जा रही हैं? दरअसल निराशा, दमन, शोषण, अत्याचार, वैमनस्य और भेदभाव के जिस घटाटोप से भारत के नागरिकों ने मुक्ति चाही थी, वो घटाटोप जीवन के कई क्षेत्रों में और अधिक घना होता दिखाई देता है। सूरज हर रोज आ रहा है, पर सुबह नहीं। गिनाने को कई उपलब्धियाँ हैं, चन्द्रयान है, सैटेलाइट हैं, ख़ुद के बनाए हथियार और जहाज हैं, छ: और आठ लेन वाले हाइवे हैं, खेलों में जीते सुनहरे तमगे हैं, बेहतरीन शॉपिंग मॉल्स हैं, बढ़ी हुई तनख्वाहें हैं, ऑडी, फॉक्स वैगन और पजेरो हैं... पर सुबह नहीं है। क्यों नहीं है?
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जब राष्ट्र और उसके स्वाभिमान से प्रेरित होकर स्वतंत्रता प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा ने हिलोरें लेना शुरू किया, तब उसके पीछे केवल राष्ट्र, राज्य की कल्पना को साकार कर लेना ही मूल उद्देश्य नहीं था। एक नक्शा और एक झंडा भी नहीं। वो संविधान भी नहीं जिसे लोकतंत्र के केन्द्र में रखा जाता है। अशोक स्तंभ के वो सिंह भी नहीं जो राष्ट्रीय अस्मिता के गर्वोक्त प्रतीक हैं। ये सब इस शरीर का निर्माण करते हैं, हाड़-माँस, मज्जा, रंग रूप और आकार बनाते हैं जिसे हम देश कह रहे हैं। उसकी आत्मा नहीं। उसकी आत्मा तो उस मानवीय उत्थान में, उस चेतना में उस भाव में बसती है जो मनुष्य हो जाने की पूर्णता इस राष्ट्र के शरीर में रहकर प्रदान करता हो। समरसता का भाव। अपने गौरवशाली अतीत को संजो सकने का भाव। वो भाव नहीं है इसलिए सब छद्म लगता है, अधूरा लगता है।

चन्द्रयान की रोशनी में बदायूँ में लटकी दो नाबालिग लड़कियों की लाश दिखती है। मॉल से फेंके गए ख़ाने की झूठन उठाते ग़रीब दिखते हैं, अपनी आत्मचेतना को बेचकर उसी अंधियारी रात के मुँह पर कालिख मलते भ्रष्ट नेता और अधिकारी दिखते हैं
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चन्द्रयान की रोशनी में बदायूँ में लटकी दो नाबालिग लड़कियों की लाश दिखती है। मॉल से फेंके गए ख़ाने की झूठन उठाते ग़रीब दिखते हैं, अपनी आत्मचेतना को बेचकर उसी अंधियारी रात के मुँह पर कालिख मलते भ्रष्ट नेता और अधिकारी दिखते हैं। तमाम तरक्की के बीच ये रात इसीलिए और गहराती जा रही है। इस कालिमा को छाँटकर सुबह के सूरज को अपनी और खींचने की कोशिशें भी ख़ूब हो रही हैं। बदलाव की इच्छा भी पहले से कहीं प्रबल है। एक आंदोलन से उपजी पार्टी को अचानक यों सफलता इसी सुबह की तलाश में मिली। पार्टी ने निराश किया पर लोग निराश नहीं हुए। आम चुनावों में वोटिंग मशीन से क्रांति की इबारत निकल पड़ी। एक व्यक्ति के वादे पर लोगों ने पूरा भरोसा किया, बदलाव की चाहत में... और सुबह का इंतज़ार हो रहा है। लाल किले की प्राचीर वादों और इरादों की सुबह का इंतज़ार कर रही है। ... फिर भी कहीं कुछ कमी है? क्यों?

क्योंकि तलाश एक मसीहा की हो रही है जो सब बदल दे... शरीर वो बदल भी दे तो क्या? आत्मा को छूने की कोशिश कहाँ है? आत्मसृजन और मानवीय विकास की वो मूल और आवश्यक धारणा कहाँ है? हम टेलीविजन देखते रहें और बदलाव हो जाए, क्या ये संभव है? महल की रोशनी झोंपड़ी को आँख दिखाने की बजाय, उसे मिटाने की बजाय वहाँ भी दीया जलाए ये कैसे होगा? क्या फेसबुक के ख़रीदे हुए लाइक्स आपको सुबह का वो उजाला दे देंगे? क्या इसी राष्ट्र, राज्य के बाशिन्दे हो जाने के लिए हमारे पूर्वजों ने वो उत्सर्ग किया? उस सुबह के उजाले के लिए एक सूरज की तलाश की बजाय भीतर जली हुई आग से क्या वो सुबह साकार नहीं हो जाएगी? .... ये माना कि अंधेरा बहुत घना है... एक दीप जलाना लेकिन कहाँ मना है.... आज़ादी की सालगिरह मुबारक ... वन्दे मातरम...।

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