Hanuman Chalisa

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

चमन को सींचकर माली चला गया...

स्मृति-शेष : डॉ. आरके दुबे

Advertiesment
हमें फॉलो करें डॉ रामकृष्ण दुबे
webdunia

जयदीप कर्णिक

PR
तगड़े इन्फेक्शन के कारण गला तो बैठा ही हुआ था कि ऐसी ख़बर आई कि दिल भी बैठ गया...। ख़बर मिली कि दुबे सर नहीं रहे। दुबे सर यानी डॉ. रामकृष्ण दुबे, जिनकी पहचान से वो ही लोग बेहतर वाकिफ हैं, जो उनके छात्र कल्याण संकायाध्यक्ष रहते देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं।

1980 और 90 के दशक में विश्वविद्यालय की साहित्यिक और सांस्कृतिक फिज़ा को जीवंत बनाए रखने का बड़ा श्रेय दुबे सर को जाता है। हमारे जैसे स्कूल से विश्वविद्यालय में ताजा कदम रखने वाले युवाओं के लिए तो दुबे सर अपने कॉलेज के प्राचार्य या कुलपति से ज्यादा अहम शख्सियत थे।

जुलाई में सत्र शुरू होता और कुछ ही दिनों में शुरू हो जाती युवा उत्सव की तैयारियाँ। हम जैसों के लिए तो मानो कॉलेज का मतलब ही युवा उत्सव था। और इसी वजह से पूरा कॉलेज जीवन ही उत्सव में तब्दील हो गया था।

सालभर का सांस्कृतिक कैलेंडर तैयार होता था। 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के दिन होने वाली वाद-विवाद स्पर्धा बहुत अहम थी। इसी के जरिए विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने वाली टीम का चयन होता था। इस डिबेट के पहले बाकायदा कार्यशाला होती थी जिसमें वरिष्ठ वक्ता मार्गदर्शन देते थे।

स्कूल में अच्छा बोलने के बाद भी विश्वविद्यालय स्तर पर अच्छा वक्ता बनने के लिए क्या करना होगा इसके लिए ये कार्यशाला बहुत मददगार साबित हुई। डॉ. अशोक शर्मा डैडी, प्रो. सरोज कुमार, प्रो. मंगल मिश्र प्रशिक्षण देने आते थे। राजीव शर्मा, उमेश शर्मा, राजेश दुबे 'रोमी' और प्रतीक श्रीवास्तव जैसे वक्ताओं की उस समय धाक थी।

इसी तरह की तैयारी और मेहनत, नाटक, एकांकी, गायन, वादन, लेखन इन सभी विधाओं के लिए होती। तब के युवा उत्सव महाविद्यालयों के खचाखच भरे सभागृहों में होते थे। इन उत्सवों से निकलकर आने वाली प्रतिभाएँ आज भी साहित्यिक और सांस्कृतिक फलक पर अपने हुनर के नक्षत्र को चमका रही हैं।

चाहे वो अपने बलजिंदर 'बल्लू' की सुरीली बाँसुरी हो, हितेंद्र दीक्षित का तबला हो या सपना भाटे (केकरे) और वैशाली (बकोरे) काशीकर का गायन हो। और ऐसे बहुत सारे नाम हैं...पर इन इतनी विविध प्रतिभाओं के बीच कोई एक सूत्र है तो वो हैं डॉ. आरके दुबे।
webdunia
FILE

वो चले गए हैं... पर जिस धागे में वो हमें जोड़ गए हैं, वो तो हमेशा रहेगा। ये उन्हीं के बस की थी कि अलग-अलग पृष्ठभूमियों से विश्वविद्यालय की बगिया में आने वाले फूलों को यों करीने से खाद-पानी देकर तराशना और विश्वविद्यालय की गरिमा का हिस्सा बना लेना।

छात्र कल्याण संकाय की अहमियत को डॉ. आरके दुबे सर ने वैसे ही उभारा, जैसे टीएन शेषन ने चुनाव आयोग को। हर कॉलेज में सूचना पहुँची या नहीं, सभी का प्रतिनिधित्व है कि नहीं, इस बात पर बहुत बारीकी से ध्यान देते थे।

एक बार मुझे जेएनयू की डिबेट में विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए दिल्ली जाना था। जाने की बात तो हो गई, पर दादीजी की तबीयत खराब होने से मैं उनके पास मनावर (धार) चला गया। उस समय कोई मोबाइल तो थे नहीं। वहाँ का फ़ोन भी खराब था। मैं दुबे सर को सूचित नहीं कर पाया। किसी और के यहाँ से फ़ोन करने की जेहमत मैंने नहीं उठाई। सोचा, पहुँच जाऊँगा एक दिन पहले। मैं एक दिन पहले ही इंदौर पहुँचा भी।

घर में घुसा ही था और मैं क्या देखता हूँ कि दुबे सर खुद जीप लेकर दरवाजे पर थे। पहले तो डाँटा कि तुमको चिंता नहीं है कल टीम जानी है और तुम्हारी कोई ख़बर नहीं। फिर कारण बताया तो कहा सूचित तो करना था। मैंने कहा सर फ़ोन खराब था तो बोले पुलिस का वायरलैस तो हर जगह होता है!! विश्वविद्यालय की टीम और उसके प्रतिनिधित्व की इतनी चिंता? मैं अवाक् रह गया और शर्मिंदा भी हुआ।

जब वो क्रोध से तमतमा जाते थे तो भी उतने ही आदरणीय और वरेण्य लगते थे जितना तब जब वो अपने विद्यार्थियों पर स्नेह लुटाते थे। मेहनत भी खूब करवाते थे और जीतने पर खूब खुश होकर जश्न भी मनाते थे।

दिल्ली में राष्ट्रीय प्रतिमान संसद प्रतियोगिता का आयोजन था। हम 5-7 अच्छे वक्ताओं को बुलाकर कहा कि ये बहुत अहम प्रतियोगिता है और इसे जीतना है। वहाँ 35 वक्ताओं की टीम ले जानी है। अच्छे बोलने वालों को ढूँढकर लाओ। ये काम उन्होंने हमें ही सौंप दिया।

मैं, मृणाल और आनंद इस खोज पर निकल पड़े थे। हर कॉलेज में जाकर वक्ता ढूँढे और टीम बनाई। कुछेक खोज तो बहुत ग़जब की रही। पर वो किस्सा फिर कभी। टीम बनी तो हमने कहा कि हमारा मित्र है ये उपेंद्र पाटीदार, इसने साथ में खूब मेहनत की है। भाषण तो ये खुद नहीं दे पाएगा, पर हमारे भाषण तैयार करवाने में इसकी बहुत मदद रही है। हम इसे भी दिल्ली ले जाना चाहते हैं।

दुबे सर ने कहा हाँ तो ले चलो। हमने कहा सर कैसे? तो सर बोले अरे भई लोकसभा में मार्शल भी तो होता है, इसका डील-डौल भी बढ़िया है...एनसीसी की ड्रेस तो इसके पास होगी ही...बस हो गया। उन्होंने हमारा मन ही नहीं रखा, उसे स्क्रिप्ट में सही तरीके से फिट भी किया। ये मार्शल बाद में काम भी बहुत आया। सर खुद हमारे साथ गए।

भाग्येश द्विवेदी ने लोकसभा अध्यक्ष की जो भूमिका निभाई वो सदा यादगार रहेगी। पूरी टीम दिल्ली में बाल भवन में रुकी। हमने इलाहाबाद विश्वविद्यालय को हराकर प्रथम स्थान प्राप्त किया। उसी शील्ड के साथ टीम का और दुबे सर का फ़ोटो यहाँ लगाया है।

प्रतिमान संसद की ये जीत और यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण रही। नए साथी तो जोड़े ही- अखबार उद्घोष प्रयास के जन्म में भी इस यात्रा ने अहम भूमिका निभाई। दुबे सर ने जो मार्गदर्शन दिया, जो हौसला अफजाई की, टीम का ध्यान रखा उसकी छवि तो मानस पटल पर सदा अंकित रहेगी।

इंदौर से पचमढ़ी के चिंतन शिविर में भी तीन बसों में विश्वविद्यालय का दल ले जाना और वहाँ ये कोशिश क‍ि इंदौर का डंका बजे... ये कुछ यादगार लम्हें थे। जब वो हमारे साथ यात्रा पर नहीं होते थे तब फ़ोन पर उन्हें टीम की जीत की ख़बर देने का उत्साह और आनंद भी अलग था। बहुत से लोग दुबे सर को बहुत रूपों में जानते हैं, पर हम सभी साथियों के लिए उनका वो पितामह रूप हमेशा कायम रहेगा।

प्रतिभा को मंच दिलवाने और आगे बढ़ाने की जो जिद दुबे सर में थी, बिरले ही देखने को मिलती है। वो बाद में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से भी संबद्ध रहे और उनसे संपर्क बना रहा।

उम्र के उस दौर में जब आप खौलते लावे की तरह बस चारों ओर फैल जाना चाहते हैं, चंद लोग ही होते हैं जिनमें उस युवकोचित ऊर्जा को इस्पात में ढालकर फौलाद बना देने की क्षमता होती है। दुबे सर निश्चित ही उनमें से एक थे। सर को विनम्र श्रद्धांजलि।

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi