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दिल्ली गैंगरेप : ये शर्म का विषय है या सम्मान का?

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जयदीप कर्णिक

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अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने दिल्ली गैंग रेप पीड़िता को उसके अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत सम्मानित करने का फैसला लिया है। इस आठ मार्च को अमेरिका की प्रथम महिला मिशेल ओबामा और अमरीकी विदेश मंत्री जॉन कैरी एक समारोह में "निर्भया" को मरणोपरांत' इंटरनेशनल वीमेन ऑफ़ करेज अवार्ड' से सम्मानित करेंगे।

इसमें कोई शक नहीं कि इस बलात्कार को प्रतीक मानकर पूरे देश में जो व्यापक जन आंदोलन खड़ा हुआ वह अभूतपूर्व भी है और महत्वपूर्ण भी। निश्चित ही इसने पूरे देश में महिला उत्पीड़न और स्त्री विमर्श से जुड़े तमाम मुद्दों को नई दिशा दी। इस आंदोलन और इस जनचेतना का भी जिक्र पुरस्कार के विवरण में है। निश्चित ही मरणासन्न अवस्था में और इतनी वीभत्स घटना का शिकार होने के बाद अपराधियों को सजा दिलाने का जो जज्बा निर्भया ने दिखाया वो भी सलाम करने योग्य है।

...लेकिन एक देश के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस रूप में पहचाना जाना क्या सचमुच सम्मान की बात है कि हमारे यहाँ भरे बाजार में चलती बस में बलात्कार हो जाता है और हम उसे रोक नहीं पाते? क्या हम इस बात पर गर्व करें कि जहाँ एक ओर सारा देश आंदोलित था वहीं पुलिस और आला अधिकारी एक-दूसरे पर छींटाकशी में लगे थे! या इस बात पर कि उस लड़की के बयान बदलवाने की शर्मनाक कोशिश भी अंत तक होती रही? या हमें इस बात पर सम्मानित किया जाना चाहिए कि इस बलात्कार के ख़िलाफ आवाज उठाने वाले युवाओं पर पानी की बौछार की गई और उन्हें लाठियों से पीटा गया?

पुरस्कारों से खुश होकर उसके उद्देश्य को याद रखने की बजाय उसे शो-केस में सजा लेना, महापुरुषों की मूर्तियाँ लगवाकर उनको भूल जाना और महान विचारों को किताबों तक सीमित कर देना हमारा पुराना शगल है
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क्या हम इसलिए बहादुर हैं कि हमारा कोई भी नेता सड़क पर खड़ी उस भीड़ से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया? या इस पुरस्कार के बाद हमें इसलिए बल्लियों उछलना चाहिए कि उस घटना के बाद हम सचमुच 'सभ्य' हो गए और हमारे यहाँ बलात्कार की या यौन शोषण की कोई घटना ही नहीं हुई?...

सच तो ये है कि 16 दिसंबर 2012 कि उस स्याह रात का घटाटोप अंधेरा अभी मार्च 2013 में भी कायम है। बलात्कार की ख़बरों से अखबार रंगे हुए हैं। 4 साल की बच्ची से भी बलात्कार हुआ और 70 साल की बूढ़ी से भी। सच ये भी है कि इस घटना के बाद महिला सुरक्षा को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारी छवि धूमिल ही हुई है।

ऐसे कई वाकये हैं जहाँ भारत प्रवास पर आने वाली महिलाओं ने या तो तौबा कर ली या उन्होंने अतिरिक्त सुरक्षा की माँग की। मुझे एक मामला हाल ही में मेरे मित्र ने बताया जो डॉक्टर हैं और बड़े अस्पताल में कार्यरत हैं। उनके अस्पताल में आने के लिए अमेरिका के एक बड़े डॉक्टर पूरी तरह तैयार हो गए थे। वो परिवार सहित ही यहाँ आकर बस जाने वाले थे। इस घटना के बाद उनके परिवार ने मना कर दिया और वो नहीं आए। ऐसे कई और मामले हो सकते हैं।

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महिलाओं के प्रति हमारे नजरिए का दोष, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में बढ़ते मनोविकारों को चीरकर सूरज की उजली किरण खींच लाने में अभी लंबा वक्त लगेगा। सामाजिक परिवर्तन की लौ को जलाए रखना पड़ेगा।

ताजा खबर ये है कि सरकार महिला उत्पीड़न को लेकर और कड़े कानून लेकर आ रही है। इसमें छेड़छाड़, एसिड फैंकने जैसी घटनाओं को लेकर भी अधिक सख्ती दिखाई गई है। बलात्कार को लेकर तो ख़ैर ये कानून और सख़्त है ही। सवाल ये है कि क्या कानून पहले नहीं थे? उनके अमल को बेहतर बनाने के लिए हमने क्या किया? मौके पर मौजूद पुलिसवाले और आम जनता अपनी जिम्मेदारी को और अधिक संवेदनशीलता के साथ निभाएँ, इसके लिए हम क्या कर रहे हैं?

इसीलिए ये सवाल लाजिमी हो जाता है कि इस पुरस्कार पर हम गर्व करें या शर्म? इसलिए भी क्योंकि पुरस्कारों से खुश होकर उसके उद्देश्य को याद रखने की बजाय उसे शो-केस में सजा लेना, महापुरुषों की मूर्तियाँ लगवाकर उनको भूल जाना और महान विचारों को किताबों तक सीमित कर देना हमारा पुराना शगल है.....।

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