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नवीन जिंदल : कोयले की कालिख से निकली स्याह सच्चाई

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जयदीप कर्णिक

PTI
नवीन जिंदल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में छाया सन्नाटा सचमुच बहुत चुभने वाला है। स्क्रीन पर 'जी न्यूज' के पत्रकारों से हुई बातचीत का वीडियो चल रहा था। उसके बाद पूरे सभागृह में सन्नाटा छा गया। इस सन्नाटे की चुभन को हर वो व्यक्ति महसूस कर सकता है जो सही मायने में पत्रकार है, मीडियाकर्मी है, मीडिया से जुड़ा है, संवेदनशील है। इस शूल की ख़लिश और उससे उपजी बेचैनी को जिंदा रखना भी बहुत जरूरी है। ये बेचैनी ही शुद्धिकरण की राह पर ले जा सकती है। यदि इस मामले को केवल 'टिप ऑफ द आइसबर्ग' कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

कोयला आवंटन घोटाले में जी टीवी और नवीन जिंदल के बीच चल रही रस्साकशी में मीडिया और कॉर्पोरेट जगत दोनों ही के बेनकाब होते चेहरों से जो सच्चाई सामने आ रही है, वह तो सतह पर दिखाई देने वाला हिमखंड का एक टुकड़ा मात्र है। सतह के भीतर ये टुकड़ा एक विशालकाय चट्टान के रूप में तैर रहा है जिससे टकरा कर सच्चाई, मूल्य आधारित पत्रकारिता, कॉर्पोरेट जगत में ईमानदारी और राजनेताओं की साफगोई के जहाज रोज टकरा-टकरा कर चूर हो रहे हैं।

बड़ा सवाल ये नहीं है कि जी टीवी और नवीन जिंदल में से सही कौन है और ग़लत कौन? सवाल ये है इस सब में ऐसा क्या है जो लोगों को ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ पता नहीं है? ऐसी घटनाएँ तो बस तस्दीक भर करती हैं इस बात की कि जो हम दबी जुबान से सुनते और कहते आए हैं, वो सही है और ऐसा हो रहा है।

अब भेड़िया आया, भेड़िया आया का डर फैलाने की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है, भेड़िये रोज ख़ुद ब ख़ुद ही सामने आ रहे हैं। क्या मीडिया, क्या राजनेता और क्या उद्योगपति, सब शेर की ख़ाल पहने भेड़िये ही नजर आते हैं। राजनेता और उद्योगपति, इनको लेकर आने वाले समाचारों पर अब लोगों ने चौंकना बंद कर दिया है।

जैसे शरीर में पहले से कोई जख़्म हो और कोई दूसरा उससे गहरा जख़्म हो जाए तो पहले जख़्म का दर्द भी कम हो जाता है और उसकी ओर ध्यान भी नहीं जाता। ऐसे ही राजनेताओं और घोटालों को लेकर तो अब ये दिक्कत है कि कौन सा घोटाला बड़ा है और कौन सा छोटा, ये तय करना ही मुश्किल हो गया है। इन घोटालों को लेकर जनता को गुस्सा आना भी बंद हो गया है।

ये बहुत बुरी स्थिति है... लेकिन हुआ कुछ ऐसा ही है। एक के बाद एक इतने जख़्म होते चले गए कि इलाज करना छोड़कर, या यों कहें कि इलाज की उम्मीद छोड़कर हम दर्द का ही मजा लेने लगे। गोया कि दर्द ही दवा हो गया। लेकिन ये बहुत खतरनाक स्थिति है। क्योंकि ये इश्क नहीं है, यहाँ देश दाँव पर लगा है।

बहरहाल, मूल मुद्दा ये है कि जो हाल राजनीति और उद्योग जगत का हुआ है, वो मीडिया का ना हो, और मीडिया को लेकर जो एक उम्मीद की किरण बची है वो कैसे नई सुबह का उजाला लाए, इस पर मेहनत करना जरूरी है।

ऐसा नहीं है कि मीडिया को लेकर ऐसे आरोप या तथ्य पहले सामने नहीं आए हैं। लेकिन ज्यादातर मामले व्यक्तिगत रहे हैं। कुछ पत्रकार हैं जिनके बारे में पैसे लेकर ख़बरें छापने की बातें भी सामने आती रही हैं। पेड न्यूज की बातें भी सामने आती रहीं, जहाँ पैसे लेकर किसी का प्रचार किया गया। ये भी संस्थागत भ्रष्टाचार का ही मामला है लेकिन ऐसा माना जाता रहा कि संपादक इसके हमेशा से ख़िलाफ हैं और इसमें मार्केटिंग और मालिकों का दखल ज्यादा है।

लेकिन ताजा घटना ने संपादक को... संपादक रूपी संस्था को भी इस दायरे में लिया है। ये किसी एक मीडिया हाउस विशेष का मामला होने के बाद भी समूचे मीडिया को संदेह के घेरे में लेता है। ये बीमारी फैली तो भीतर तक है पर मवाद अब बाहर निकल रहा है। इसका इलाज अब शुरू नहीं किया तो मरीज बचेगा नहीं, क्योंकि देर तो पहले ही हो चुकी है।

एक समस्या और ये है कि यहाँ बाहर से कोई डॉक्टर नहीं आएगा। खुद मरीज को ही अपना इलाज करना होगा। ये अच्छा है कि ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन ने और प्रेस काउंसिल ने इस पर कुछ कार्रवाई की है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि वो पर्याप्त नहीं है। अभी तो ख़बर पहुँचाने वाले ख़ुद ख़बर बन रहे हैं ... बुरी बात के लिए। इसकी ख़बर सभी ख़बरनवीस अच्छे से ले लें तो इलाज हो जाएगा।

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