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नेल्सन मंडेला : संघर्ष जारी रहे

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जयदीप कर्णिक

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बहुत से नेता अपने समाज या देश के लिए बड़े से बड़ा काम करने के बाद उस देश, समाज या क्षेत्र तक ही सीमित रहते हैं। चंद ही ऐसे नेता होते हैं जो उन भौगोलिक सीमाओं को लांघ कर दुनिया के लिए प्रेरणा-पुंज बन जाते हैं। वो ऐसा सायास नहीं करते। परिस्थितियों का विवेचन कर जो निर्णय वो लेते हैं, जिस राह पर वो चलते हैं.... उस दिशा में बढ़ते चले जाते हैं और दुनिया उनके पीछे आ खड़ी होती है। उनका विचार दुनिया को राह दिखाता है।

हिंदुस्तान की आजादी के लिए भी बहुत बड़े-बड़े नेताओं ने लड़ाई लड़ी। किसी का योगदान गाँधी से कम नहीं। पर देश में और देश के बाहर जितनी मूर्तियाँ गाँधीजी की लगी हैं, किसी और की नहीं...। क्यों? क्योंकि गाँधी ने देश की आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जिन मूल्यों में जान फूँकी वो किसी देश और समाज के नहीं थे, वो समूची मानवता के थे। दो विश्वयुद्ध झेल चुकी दुनिया को ये बता पाना की बारूद से ज्यादा बड़ी क्रांति "विचार" से हो सकती है, उसके लिए बहुत तगड़ा आत्मबल चाहिए। दुनिया आज भी हथियार बना रही है पर जानती है कि गाँधी कितने सही थे और इसीलिए उनकी मूर्तियाँ लगाती है। सलाम करती है।

नेल्सन मंडेला को भी अमेरिका और ब्रिटेन ने बाकायदा आतंकवादियों की सूची में डाल रखा था। उसी ब्रिटेन ने बाद में जाकर उनकी प्रतिमा लगाई। पता नहीं इससे उनके चेहरों पर लगी रंगभेद की स्याही मिटेगी या नहीं पर मंडेला के विचारों की चमक जरूर और अधिक प्रकाशवान होकर बिखरेगी। मंडेला भी अपने राष्ट्र की आजादी के लिए लड़े। पर वो उन्हीं शाश्वत मानवीय मूल्यों को प्राण प्रतिष्ठित करते चले गए जिसमें सारी मानव सभ्यता अपना जीवन तलाशती है।

मानव को रंग, वर्ण, जाति, धर्म और धन से परे केवल मानव समझने के मूल्य। सारी दुनिया कहीं ना कहीं हर रोज ये आत्मावलोकन करती है कि कैसे हम यों असभ्य, क्रूर, हिंसक और अमानवीय (पाशविक कहना भी ग़लत होगा) हो गए? और ये ख़याल मन में आते ही दुनिया नेल्सन मंडेला जैसे नायकों को सलाम करने लगती है।

जब तक शोषण है, दमन है, अत्याचार है, भेदभाव है तब तक संघर्ष है और इस संघर्ष को आवाज और नेतृत्व देने के लिए कोई गाँधी कोई मंडेला चाहिए ही होगा जो इसी दमन की कोख से उपजेगा
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नेल्सन मंडेला हालाँकि गाँधी से बहुत अधिक प्रभावित थे, पर फिर भी वो गाँधी से अलग थे। गाँधीजी बहुत आम हो जाने के बाद भी बहुत ख़ास थे और मंडेला बहुत ख़ास हो जाने के बाद भी बहुत आम। वो अफ्रीका के आम जीवन में बहुत करीब से घुले हुए थे। उन्होंने तीन शादियाँ कीं। वो अफ्रीकी लोक नृत्यों पर खुलकर थिरक सकते थे। उन्होंने अपने ही ऊपर बनी एक फिल्म में भी काम किया। वो चाहते तो आजीवन अफ्रीका के राष्ट्रपति बने रह सकते थे पर उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधी को सत्ता सौंप दी। जिस एफडब्ल्यूडी क्लार्क से वो रंगभेद को लेकर लड़ते रहे, उसे ही अपनी सरकार में उप-राष्ट्रपति रखा। एक अलग समावेशी सोच और दूरदृष्टि के साथ उन्होंने अपने जीवन को संचालित किया। 27 साल में पूरा जीवन ही ख़त्म हो जाता है पर 27 साल की जेल ने भी उनके इरादों को कमजोर नहीं होने दिया।

वो 95 साल के थे और लंबे समय से बीमार थे। फिर भी इस दुनिया में उनकी सशरीर उपस्थिति लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के लिए दुनियाभर में हो रहे संघर्ष को हौसला देती थी। ये पता था कि वो जल्द चले जाएँगे पर फिर भी उनके जाने की ख़बर ने मन में एक अजीब-सी टूटन पैदा की। शायद इसलिए कि वैश्विक पटल पर मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष के प्रतीक दिन-ब-दिन कम होते जा रहे हैं।.... और ये लड़ाई है कि ख़त्म ही नहीं हो रही है। जब तक शोषण है, दमन है, अत्याचार है, भेदभाव है तब तक संघर्ष है और इस संघर्ष को आवाज और नेतृत्व देने के लिए कोई गाँधी कोई मंडेला चाहिए ही होगा जो इसी दमन की कोख से उपजेगा। मदीबा.... नेल्सन रोहिल्हाहिला मंडेला को श्रद्धांजलि। .... संघर्ष जारी रहे।

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