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लोकपाल : 'राजनीति' से राजनीति तक

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जयदीप कर्णिक

दिल्ली में दिसंबर 2011 की ही सर्दी थी। 29 दिसंबर 2011 को आधी रात को शीतकालीन सत्र समाप्त होना था। राज्यसभा पर सबकी नज़रें गड़ी हुई थीं। लोकसभा से लोकपाल बिल पास हो गया था। राज्यसभा में विधेयक पर बहस चल रही थी।

लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेता राजनीति प्रसाद उठे और विधेयक की प्रतियां फाड़कर हवा में लहरा दीं। राजनेताओं के विरोध में सड़क पर उतरा समाज स्तब्ध था। पर "राजनीति" ने वही किया जो वो चाहती थी।

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राजनीति के खेल निराले हैं। फिर वही दिसंबर की सर्दी है। 18 दिसंबर 2013 का दिन ऐतिहासिक हो गया। 17 दिसंबर को राज्यसभा में लोकपाल पर संजीदा-सी बहस चली, उसी राज्यसभा में जहां उसे फाड़ दिया गया था। एक-दूसरे को आंख दिखाने वाले कांग्रेस और भाजपा के नेता गलबहियां करते हुए नजर आ रहे थे।

विपक्ष के लगभग सभी संशोधन सत्ता पक्ष ने मान लिए थे। फिर आज 18 दिसंबर को लोकसभा में भी समाजवादी पार्टी को छोड़कर सभी नेता ऐसे कह रहे थे जैसे वो तो कब से ये लोकपाल लाने को आतुर थे। गोया उन्हें ये पता ही नहीं की आख़िर पिछले 45 सालों से ये विधेयक अटका हुआ क्यों था? इसे तो कब से ही आ जाना चाहिए था?

वो सारे नेता चाहेंगे तो भी हम ये नहीं भूलने देंगे की 43 साल तक ये विधेयक क्यों अटका था और पिछले 2 सालों में देश में ऐसा क्या हुआ है कि परिदृश्य ही बदल गया!! इन 2 सालों में हुआ ये है कि एक के बाद एक घोटालों और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को 74 साल के एक बुजुर्ग ने आवाज़ दी।

जनता मानो बस ऐसे ही किसी 'ईमानदार आव्हान' के इंतज़ार में थी और वो अन्ना हजारे नाम के इस बुजुर्ग के पीछे खड़ी हो गई। लगभग सालभर की लड़ाई में आंदोलन ने कई रूप देखे। रामलीला मैदान का जनसैलाब भी देखा और मुंबई के एमएम आरडीए मैदान का खालीपन भी।

इस खालीपन से उपजी हूक या अंदर छुपी आकांक्षा, जो भी कहें, ने टीम के एक हिस्से को राजनीति की राह पर चलकर बदलाव लाने का संकल्प लेते हुए देखा। अन्ना ने कहा की वो राजनीति में नहीं आना चाहते और वो उसी आंदोलन की राह पर चलते रहे।

जनता ने ये भी बताया कि आंदोलन के वक्त जो गुस्सा उनमें था वो ख़त्म नहीं हुआ है। कुर्सी पर पीछे टिक कर इसे तमाशे की तरह देख रहे राजनेता अचानक सजग हो गए। जैसे उन्हें किसी ने बुरी तरह चिकोटी काटी हो और कहा हो बेवकूफ ये तमाशा नहीं सच्चाई है!!
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राजनीति की राह पर चलने वालों को सब एक सस्पेंस थ्रिलर की तरह देख रहे थे। वो फुस्स हो जाएंगे या सफल इन सब कयासों के बीच 8 दिसंबर 2013 को ही इस देश की राजनीति ने एक और करवट ली जब राजनीति की राह पर चले आंदोलनकारियों की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में 70 में से 28 सीटें जीत लीं।

जनता ने ये भी बताया कि आंदोलन के वक्त जो गुस्सा उनमें था वो ख़त्म नहीं हुआ है। कुर्सी पर पीछे टिक कर इसे तमाशे की तरह देख रहे राजनेता अचानक सजग हो गए। जैसे उन्हें किसी ने बुरी तरह चिकोटी काटी हो और कहा हो बेवकूफ ये तमाशा नहीं सच्चाई है!! राहुल गांधी ने तो उसी दिन बिना किसी 'राजनीति' के आम आदमी पार्टी से भी सीखने की बात कह डाली।

भाजपा को झटका लगा कि अरे ये तो आगे भी अपने को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं। सारे भाजपाई जिस मंच पर जैसे मौका मिले 'आप' को निपटाने में नहीं चूक रहे। फिर सब राजनीति करते हुए लामबंद हुए। अन्ना अनशन पर बैठ ही गए थे। राजनीति वालों को मौका मिल गया अन्ना को अपने पाले में करने का और आप से 'कुछ' छीनने का। बस.... देखिए ये हो गया लोकपाल बिल पास!!

आम आदमी पार्टी की राजनीति पर तो आगे बहुत बात होती रहेगी। पर अगर उसका कुछ बड़ा हासिल है तो वो ये कि ऐसे आंदोलनों को हल्के में ना लेने का 'राजनीति' को मिला सबक। राजनीति तो हमेशा चाहती है कि आंदोलन टूटे, बिखरे और राजनीति चलती रहे। अब जरूरी ये है कि इन दो सालों की जो लड़ाई है उसे भूलने ना दिया जाए।

जो लोग इस पसोपेश में हैं कि इस लोकपाल के पारित होने को लेकर ख़ुशी मनाएं या अफसोस.... उन्हें बिना हिचक इस बात की ख़ुशी मनानी चाहिए कि जनता की आवाज पर 45 सालों से अटका एक कानून पारित हो गया।

वो जिस रूप में पारित हुआ उसको लेकर दु:ख मनाने की बजाय आगे उसे सुधारे जा सकने की गुंजाइश को लेकर आश्वस्त रहना चाहिए। इस बात के लिए अफसोस मनाया जा सकता है कि आंदोलन को ये जीत चरम पर पहुंची 'महाविजय' की बजाय 'राजनीति' और समझौते के रास्ते मिली तसल्ली है।

सबसे बड़ी बात जो ध्यान रखी जानी चाहिए वो ये कि लोकपाल तो बस एक प्रतीक भर था भ्रष्टाचार और सड़ी-गली अर्थव्यवस्था से लड़ने के लिए। इसका पारित हो जाना तो शुरुआत भर है। लोकपाल की समूची अवधारणा ये है कि जो भ्रष्टाचार करे वो बच ना पाए।

इससे शायद लोग भ्रष्टाचार करने से डरें। पर हम सब जानते हैं कि ये सब इतना आसान नहीं है। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लड़ते वक्त हम कहीं ना कहीं अपने आप से भी लड़ रहे थे और लड़ रहे हैं। हम जानते हैं कि चाहते ना चाहते हम भी इसी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा हैं। और ख़ुद को सजा देने या सुधारने के लिए हमें किसी लोकपाल का इंतजार करने की जरूरत नहीं।
... जरूरत तो बस अब इस बात की है कि हम अपनी लड़ाई को और उसके उद्देश्यों को ना भूलें.... क्योंकि 'राजनीति' तो ऐसा ही चाहती है।

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