ये समाज के भटकाव का समय है। इतने सारे भव्य विद्यालय और विश्वविद्यालय होने के बाद हमें वो जागृति, वो चेतना दिखाई नहीं पड़ती जो शिक्षा के इन आलयों यानी मंदिरों से मिलनी चाहिए। भक्त और भगवान यानी गुरु और शिष्य दोनों ही तरफ कमियाँ हैं। ज्ञान की तलाश में निकले जहाज रास्ता भटक रहे हैं। क्योंकि वो शिक्षा के उन प्रकाश स्तंभों से दूर हैं जो राह बताने के लिए खड़े हैं। आज ज़रूरत है तो ऐसे प्रकाश स्तंभों की चमक और पहचान को दूर तक पहुँचाने की। शिक्षा के क्षेत्र में पिछले चार दशक से भी अधिक समय से समर्पित भाव से काम कर रहे एक प्रकाश स्तंभ का नाम है दीपक खरे यानी ‘बड़े सर’। बड़े सर यानी ज्ञान का ऐसा बड़ा रोशन दीपक जो कई भटके जहाजों को सतत मंजिल बताता रहा है। अपनी रोशनी से, मेधा से, ज्ञान से।
बड़े सर को अहिल्योत्सव समिति ने ‘अहिल्या इंदौर गौरव पुरस्कार’ से सम्मानित करने का निर्णय लिया है। इस ख़बर और घोषणा के साथ मेरे जैसे उनके हज़ारों शिष्य यकबयक ये सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं– अरे हाँ, बड़े सर ने तो अपने समर्पण और शिक्षा से हम सबको कितना कुछ दिया, किसी पुरस्कार, किसी श्रेय की लालसा के बगैर। आज जब सर के उस समर्पण, उस श्रम, उस योगदान का किसी भी स्तर पर सम्मान किया जा रहा है तो हम सब के लिए यह गर्व का अवसर है। वो बड़े सर जो हमारे दिलों में सभी सम्मानों और पुरस्कारों से परे, बड़ा और ऊँचा स्थान रखते हैं। वो बड़े सर जो गुरु और बड़े भाई के रूप में समाज में आदर्श हैं।
उनकी क्लास और वहाँ के छात्र ही उनका परिवार है। जितनी तन्मयता से, डूबकर वो पढ़ाते हैं बिरले ही देखने को मिलती है। क्लास में आने वाले बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि और परिवार के सदस्यों के बारे में उनको पूरी जानकारी भी होती है और सबका बराबर ध्यान भी रखते हैं। तभी तो आज भी उनकी क्लास में कई बच्चे बिना फीस दिए पढ़ते हैं। सर को बस समझ में आना चाहिए कि परिवार की स्थिति नहीं है फीस भरने लायक। बस हो गया।
आज के समय में जब शिक्षा पूरी तरह एक व्यापार का रूप ले चुकी है, ‘कोचिंग क्लास’ तो निर्लज्जता की हद तक व्यावसायिक हो चुके हैं, तब कोचिंग से ही अपना परिवार चलाने वाले बड़े सर कहते हैं– कोचिंग क्लास की ज़रूरत पड़ना ही हमारी शिक्षा व्यवस्था की रुग्णता को, उसकी बीमारी को दर्शाता है!! स्कूल, कॉलेजों में ठीक से पढ़ाई न हो पाने के कारण ही कोचिंग की ज़रूरत पड़ रही है। पहले कोचिंग भी सीमित थीं और कम से कम यहाँ तो ख़ूब निष्ठा और ईमानदारी से पढ़ाया जाता था। अब तो कोचिंग भी व्यापार हो गया। पैसे के लालच ने यहाँ भी गड़बड़ कर दी। सब बुरे नहीं लेकिन ख़राबी बड़े पैमाने पर है। बड़े सर यानी दीपक खरे बहुत यकीन और आत्मविश्वास के साथ कहते हैं – 'अगर हमारी नियमित शिक्षा यानी स्कूल-कॉलेज की शिक्षा एकदम दुरुस्त हो जाए तो सबसे पहले मैं अपनी कोचिंग क्लास बंद कर दूँगा और ऐसा करने में मुझे ख़ुशी होगी।' .... ऐसा सिर्फ बहुत बड़ा दिल रखने वाले ‘बड़े सर’ ही सोच और कह सकते हैं।
ऐसे भाव आने के लिए जो संस्कार चाहिए वो उन्हें मिले उनकी माताजी यानी ‘ताई खरे’ से। ताई ने बड़े जतन से परिवार के संस्कारों को संजोया है। दीपक खरे और मिलिंद खरे के चेहरे का तेज और व्यवहार का सौम्य ताई के अथक प्रयत्न और तिनकों को मेहनत से जोड़कर बनाए आशियाने की दास्तान बयान करने के लिए पर्याप्त है। संस्कारों की ये घुट्टी बहुत मेहनत से तैयार होती है और बहुत जतन से अगली पीढ़ी को हस्तांतरित हो पाती है। खरे परिवार इसका अनुपम उदाहरण है।
बड़े सर ने 14 वर्ष की उम्र से ही ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था। क्योंकि उनकी आगे की पढ़ाई का खर्च उन्हें ख़ुद ही उठाना था। उन्होंने कहा कि हम सब ‘अर्न एंड लर्न’ ही करते थे। यानी ख़ुद कमाओ और अपनी पढ़ाई का इंतज़ाम करो। उनकी पहली ट्यूशन थी भोपाल की प्रसिद्ध मनोहर डेयरी के परिवार में। वो लोग तब इंदौर में क्रिश्चयन कॉलेज के पीछे लंबी चाल के पास रहते थे। बड़े सर सुबह 4.30 बजे अपने घर से निकलकर ठीक 5 बजे उनके यहाँ पहुँच जाते। 7 बजे तक पढ़ाते, फिर ख़ुद पढ़ने जाते। फीस मिलती थी 35 रुपए। तब से जो सिलसिला चला तो खरे-अभ्यंकर क्लास से होता हुआ खरे इंस्टटीट्यूट तक पहुँच गया। एक ही सिद्धांत कायम किया कि कोचिंग को ‘इम्पोर्टेंट’ देने और ‘गाइड’ से पढ़ाने की जगह नहीं बनाना। वो नियम आज भी कायम है। बच्चों को ख़ूब पढ़ाते भी हैं और साथ ही प्राणायाम और योग भी करवाते हैं।
लगातार क्लास में पढ़ाने वाले और अनुशासनप्रिय बड़े सर को साहित्य और संगीत से बहुत अनुराग है। यों एक समय में वो चित्रकारी भी किया करते थे। पर साहित्य और संगीत का प्रेम अब भी कायम है। सर के पास 3500 से ज़्यादा किताबें हैं। हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी का श्रेष्ठ साहित्य पढ़ना उनका शौक है। संगीत में ध्रुपद और कुमारजी के साथ ही तमाम बड़े गायकों की सीडी उनके पास मिल जाएगी।
मुझे जब पिताजी ने सर के पास पढ़ने भेजा था, तो मेरी रुचि खेलकूद और साहित्यिक गतिविधियों में ज़्यादा थी। मुझे सर ने पूछा– कर्णिक! इधर आओ, क्या दिक्कत है तुम्हें? मैंने कहा सर मैं तो अभी क्रिकेट खेलने जाता हूँ, क्लास कैसे आऊँगा? इतनी पढ़ाई कैसे करूँगा? सर बोले– ये तो कोई समस्या ही नहीं है। क्लास सुबह आना। शाम को दिया-बत्ती के बाद क्रिकेट नहीं होता और उसके पहले पढ़ाई नहीं होती!! – मैं क्या जवाब देता? – तो सर के यहाँ से आप डॉक्टर बनो या ना बनो, अच्छे इंसान तो बन ही जाओगे।
सर के शिक्षण कार्य और समर्पण को सम्मानित करने के लिए शहर का कैनवास थोड़ा छोटा है... पर दुनियाभर में फैले सर के शिष्य अपने आदर से सर के इस सम्मान को बड़ा-बहुत बड़ा बना देंगे ... यही विश्वास है... सर को बहुत बधाई, अभिनंदन और चरण स्पर्श।