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निर्भया की ज्वाला

हमें फॉलो करें निर्भया की ज्वाला

जयदीप कर्णिक

देश के तमाम टेलीविजन चैनलों पर आज दिल्ली के निर्भया कांड के दो साल पूरे होने की याद दिलाते हुए महिला सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर बात की जा रही है। देश के अलग-अलग हिस्सों से रिपोर्टर ये पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या निर्भया के बाद वाकई कुछ बदला है? क्या हमारे शहर पहले से अधिक सुरक्षित हो गए हैं? क्या दो साल पहले दिल्ली से लेकर देश की सड़कों तक फैला आक्रोश महज क्षणिक आवेग था या कि हमने वाकई कुछ सबक सीखे हैं। 
जहाँ तक कानून में बदलाव की बात थी, दुरुपयोग हो सकने की चेतावनियों के बीच भी कानून में कुछ तब्दीलियाँ तो की गई थीं। घूरने, पीछा करने आदि को भी छेड़छाड़ के दायरे में लाया गया। दरअसल, निर्भया कांड ने समूची कानून व्यवस्था की कलई खोल दी थी। कानून और पुलिस के बीच मौजूद तमाम दरारों को उभार कर रख दिया गया था। तब बलात्कार और यौन उत्पीड़न में बड़ा फासला था। बलात्कार हो जाना मानने के लिए जबर्दस्ती संभोग की प्रक्रिया को आवश्यक माना गया था। लेकिन नए कानून में इसे और कठोर बनाते हुए स्त्री के यौनांग से छेड़छाड़ को भी बलात्कार माना गया है। इसी के चलते रसूखदार पत्रकार तरुण तेजपाल को जेल जाना पड़ा। निर्भया के बाद ही मुंबई की एक महिला पत्रकार ने एक मिल के कंपाउंड में अपने साथ हुए अत्याचार के ख़िलाफ आवाज़ उठाई और कसूरवारों को जेल पहुँचाया। 
 
देश को हिला देने वाले दिल्ली के निर्भया कांड की दूसरी बरसी के पहले ही दिल्ली के ही उबर की टैक्सी में हुए बलात्कार कांड ने भी मीडिया में सुर्खियाँ पाईं। सवाल ये है कि जो ख़बरें सुर्खियाँ पा जाती हैं उनको लेकर तो प्रशासन तुरंत हरकत में आ जाता है, लेकिन उन घटनाओं का क्या जो अब भी हर रोज हो रही हैं? देश के तमाम शहर अब भी उतने ही असुरक्षित पाए गए हैं। सुर्खी पाने वाली ख़बरों पर प्रशासन की चुस्ती में भी निर्भया के बाद उपजे आक्रोश का डर शामिल है। अब ज़रूरत है व्यवस्था की चेतना को उस स्तर पर ले जाने की जहाँ ऐसी घटनाओं को होने से रोकने का माकूल इंतजाम हो। ये चुस्ती उस स्तर तक जानी चाहिए। 
 
ये तमाम सुर्खियाँ ठंडी पड़ जाएँगी लेकिन वो आग जलती रहेगी जिसमें झुलस जाने को देश के अमूमन सभी शहरों और गली-मोहल्लों की लड़कियाँ मज़बूर हैं। ये भी सही है कि प्रशासनिक चुस्ती के साथ ही इस गंभीर मसले के इर्द-गिर्द सामाजिक सुधार का एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया जाना ज़रूरी है। हमारी समाज व्यवस्था और यौन शोषण से जुड़े गहरे मनोवैज्ञानिक पहलूओं पर ख़ूब खुलकर चर्चा होनी चाहिए। दिमाग में घुसा वासना और शोषण का वायरस सतही कोशिशों से नहीं मर पाएगा। वो परिस्थितियाँ जिनमें ये वायरस जन्म लेता है उनके इलाज की बात आज कौन कर रहा है? इसके लिए समाज को मिलकर एक बहुत तगड़ा एंटी-वायरस तैयार करना होगा।
 
निर्भया के बाद आक्रोश की चिंगारी इसीलिए इतनी तेजी से भड़की क्योंकि अपनी बेटियों को बहुत हसरतों से इस समाज में बड़ा कर रहे माँ–बाप के मन में भी कहीं कुछ मर गया था। जिस डर के साथ आज समाज में बच्चियों को बड़ा किया जा रहा है, उस डर के साथ आँख से आँख मिलाकर बात करने का वक्त आ गया है। हम इस डर के साथ अब और ज़्यादा नहीं जी सकते। जब तक हम ऐसी मजबूत सामाजिक व्यवस्था कायम नहीं कर लेते जहाँ माँ–बाप अपनी बेटी के सुरक्षित घर लौटने या घर के ही किसी कोने में उसके शोषण को लेकर चिंतित ना हों, तब तक बेटियों को भ्रूण में मार देने, कूड़े के ढेर में नवजात बच्ची मिलने या किसी मासूम को चीटियों से काटकर मरने के लिए छोड़ देने जैसी ख़बरें हमारे समाज के मुँह पर तमाचा मारती रहेंगी।
 
दिल्ली की घटना और उससे उपजे आक्रोश के बाद भी देश भर से बलात्कार की ख़बरें आती रहीं। सिलसिला कहीं थमा नहीं। इसीलिए हमें इस लड़ाई को, सामाजिक परिवर्तन की इस बयार को और गहराई तक ले जाना होगा। ... और इस लड़ाई को हमें जारी रखना होगा हर स्तर पर। इसे एक बड़े सामाजिक आंदोलन में तब्दील करने के लिए। परिवर्तन हर स्तर पर। उस पीड़िता की मौत ने जागरण का जो दीपक जलाया है उसमें हमारे आक्रोश का तेल सतत पड़ते रहना चाहिए..... पूरा उजाला फैलने तक .... सुबह होने तक। इसीलिए इस ज्वाला को जलाए रखना होगा। ये बहुत ज़रूरी है कि निर्भया की ज्वाला में जलने की बजाय उसके सबक से हमारी बेटियों की राह रोशन हो। 

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