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सपनों के पंख लगाकर एक फरिश्ते का कलाम हो जाना...

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जयदीप कर्णिक

काश के यों आसां होता सबका इंसां होना,
हमने देखा है,
पंख लगाकर एक फरिश्ते का कलाम होना।
 
अखबार बेचने वाले की तस्वीरों से अखबार रंगे हुए हैं। सोशल मीडिया पर भावनओं का सैलाब उमड़ आया है। व्हॉट्स ऐप पर उसी शख़्सियत की तस्वीर लगी हुई है। सबकुछ स्वमेव। कोई मजबूरी नहीं, कोई दबाव नहीं। उस शख़्स ने दिलों को, भावनाओं को, सपनों को, अरमानों को और उम्मीदों को बहुत करीब से छुआ। इसीलिए डॉ. अबुल पाकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम उस मयार को छू पाए जहाँ आप इंसान से फरिश्ता होते हो और फरिश्ते से कलाम को पा जाते हो...बहुत सहजता से। 
केवल भारत ही नहीं समूची मनुष्य जाति ही नायक प्रधान है। इंसान बनने की दौड़ में भागे चले जा रहे समाज को जब अपने ही बीच से निकला कोई बंदा ठिठक कर सोचने को मजबूर कर देता है तो समाज उसके पीछे हो लेता है। उसके जैसा हो जाना चाहता है। अंधी दौड़ की बजाय सफर को मंज़िल बना लेता है। जब भी ऐसा कोई व्यक्ति हमें नज़र आता है तो हम असंभव के दायरे में नज़र आने वाली चीज़ों को अचानक संभव के दायरे में लाने लगते हैं। जब कोई अखबार बेचने वाला देश का 'रत्न' बन जाता है, राष्ट्रपति बन जाता है, मिसाइलमैन बन जाता है, स्वप्नदृष्टा बन जाता है तो जनता को उसमें उम्मीद नज़र आती है, विश्वास नज़र आता है।
 
उन्हें लगता है कि ये देश केवल लाल बत्ती में गुजरते वीआईपी का नहीं है। ये देश केवल जुगाड़ से पद पा लेने वालों के लिए नहीं है। ये देश परिवारों से अवतरित हुए शासकों का नहीं है। ये देश गुदड़ी के लालों का भी है। यहाँ की ज़मीन केवल ट्रांस्प्लांट कर दिए गए बड़े वृक्षों के लिए नहीं है बल्कि यहाँ की धरती बीज को अंकुर बन जाने का अवसर देती है। ना केवल अवसर देती है बल्कि उसका उत्सव मनाती है। डॉ. अब्दुल कलाम से मोहब्बत कर रही जनता दरअसल उसी बीज के पेड़ बन जाने का उत्सव है, उसी सिलसिले का एक हिस्सा है।
 
डॉ. अब्दुल कलाम हिंदुस्तान के आसमान पर तब उभरे जब निराशा और नाउम्मीदी की धुंध छाई हुई थी। बारूद के ढेर पर बैठी दुनिया एटम बम बनाकर हमें आँख दिखा रही थी। चीन और पाकिस्तान से युद्ध का दंश हम झेल चुके थे। हमारी ही कोख से उपजा हमारा पड़ोसी हमारी नाक में दम किए हुए था। तब  एक-एक कर हमें अग्नि, पृथ्वी और आकाश जैसी मिसाइलें मिलीं। पोकरण में परमाणु की धमक मिली और मिला मिसाइलमैन के रूप में पुरुषार्थ और स्वाभिमान का प्रतीक। इस पुरुषार्थ को, शक्ति के इस अर्जन को उन्होंने जो शब्द दिए वो भी बाकमाल थे –हम शांति चाहते हैं। शक्ति ही शक्ति का सम्मान करती है। इसीलिए शांति बनाए रखने के लिए शक्ति का ये अर्जन ज़रूरी है।
 
उनके जीवन में मिसाइल और वीणा का योग महज संयोग भर नहीं था। हम मिसाइल बनाकर वीणा बजाने में मशगूल हो सकते थे क्योंकि अब कुछ समय हमें कोई परेशान नहीं करेगा। ये विडंबना ही सही पर ये सच है। मानवीय मूल्यों के संवर्धन के लिए शांति आवश्यक है और शांति बारास्ता शक्ति ही आ रही है.... तो ऐसे ही सही। इसीलिए डॉक्टर कलाम उस भारत के प्रतीक बने जो शक्ति और शांति के संतुलन को जानता है और साथ लेकर चलता है।
 
उन्होंने राष्ट्रपति के पद को महज शोभा का और औपचारिक नहीं बने रहने दिया। वो ‘पाश’ की कविता को बहुत आमफहम अंदाज़ में जनता तक लगातार पहुँचाते रहे– हमें सपने देखने चाहिए, हम सपने ही नहीं देखेंगे तो उन्हें हासिल करने के लिए आगे कैसे बढ़ेंगे?
 
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
–पाश
 
तो 15 अक्टूबर 1931 को रामेश्वरम के एक साधारण परिवार में जन्मा एक इंसान, एक अब्दुल, ख़ुदा का ये बंदा अपने कर्म से फरिश्ता बन गया और कलाम को पा गया। उसने सपने देखे और दिखाए। अपने सपने पूरे किए और हमें प्रेरणा दी की हम भी कर सकते हैं।
 
मुझे ख़ुशी है कि जब वे आईआईएम इंदौर में भाषण देने आए थे तो उन्हें छू पाया था; वो जैसे कि उन्होंने देश के सपनों को छुआ। आज पूरा देश उनको नम आँखों से विदाई दे रहा है। देश के इस नायक, भारत रत्न, पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइलमैन डॉ. कलाम को विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए उन्हीं की ये प्रेरक पंक्तियाँ –
 
समंदर को वो ही पा सकता है जिसके पास किनारे को छोड़ देने की हिम्मत हो... 

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