ये संयोग भी है और नियति भी कि जयराम जयललिता की पार्थिव देह को भी उसी राजाजी सभागृह में रखा गया जहाँ 24 दिसंबर 1987 को मारूदूर गोपालन रामचंद्रन की पार्थिव देह को रखा गया था। तमिलनाडु की राजनीति के ये दो सितारे और उनके अस्त होने का एक गवाह- राजाजी हॉल। जी हाँ, जयराम जयललिता, यानी जे. जयललिता, यानी अम्मा यानी पुरातची थलाइवी और मारूदूर गोपालन रामचंद्रन यानी एमजीआर। तमिलनाडु और भारतीय राजनीति पर गहरा असर रखने वाले इन दोनों ही व्यक्तित्वों का जीवन रहस्य, रोमांच और संघर्ष से भरा रहा। जयललिता की मौत ने दिसंबर का महीना तो साध लिया पर 24 तारीख से तो वो फिर भी दूर ही रहीं। अपनी माँ के लिए वो अमु थीं और जनता के लिए अम्मा बन गईं।
तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति के पुरोधा अन्ना दुराई की राजनीतिक विरासत के रूप दो शाखें फूटीं थीं। इन दोनों ने ही अदल-बदल कर पिछले 49 सालों में तमिलनाडु पर शासन किया है। कभी द्रमुक, कभी अन्ना द्रमुक। अन्ना द्रमुक ने आज अपना चेहरा, अपना करिश्माई नेतृत्व अम्मा के रूप में खो दिया है। द्रमुक के करुणानिधि 92 साल के हो चले हैं। द्रमुक के पास वारिस होने के बाद भी विवाद और असमंजस है। अन्ना द्रमुक के लिए इस शाख को हरा बनाए रखना और विरासत संभालना ज़्यादा बड़ी चुनौती है।
तमिलनाडु के लिए भी ये दुर्योग ही है कि उन्होंने तीन बड़े जन नेताओं को मुख्यमंत्री रहते ही खोया है। अन्ना दुराई, एमजीआर और अब जयललिता। जयललिता का लगातार दूसरी बार जीतकर आना करिश्मा ही था। कौन जानता था कि ये एक दुर्योग तक पहुँचने की शुरुआत है। यहाँ से आगे तमिलनाडु की राजनीति निश्चित ही पहले जैसी नहीं रहेगी। पन्नीर सेलवम ने अम्मा की तस्वीर जेब में रखकर मुख्यमंत्री पद की शपथ तो ले ली है, पर जिस तरह के चेहरे, करिश्मे, इच्छाशक्ति और नेतृत्व की ज़रूरत इस वक्त तमिलनाडु और अन्नाद्रमुक दोनों को है, उस पर वो कितना खरा उतरते हैं ये तो वक्त ही बताएगा। फिर कोई केवल अपने सीने के ऊपर वाली जेब में अम्मा की तस्वीर रखकर ही तो अम्मा नहीं हो जाता?
अम्मा, यानी जयललिता, यानी पुरातची थलाइवी हो जाना इतना ही आसान होता तो बात ही क्या थी!! जीवन की जिन पगडंडियों, पथरीली राहों, महामार्ग, संघर्ष, ग्लैमर, चमक-दमक, अपमान, आँसू, सफलता, शोहरत, बदनामी, जेल, प्यार, आस्था और समर्पण के तमाम उतार-चढ़ावों से वो गुजरीं उन पर चलने के बाद ही कोई व्यक्ति अम्मा रूपी व्यक्तित्व में ढल सकता है। उन पर लगे भ्रष्टाचार, तानाशाही, विलासिता और एकाधिकारवाद के तमाम आरोपों के बाद भी उनसे नफरत करने वाले तक उनकी इस संघर्ष यात्रा को सलाम करते हैं। जब एमजीआर के रूप में मिले सबसे बड़े सहारे ने ही उन्हें दूर झटका तो फिर वो किसी और को अपना नहीं बना पाईं।
सबसे भावुक दिल जब टूटकर बिखरता है तो फिर जुड़ने के बाद उसकी कठोरता से कोई मुकाबला नहीं कर सकता। इस टूटकर फिर जुड़े की तासीर कई बार बहुत अचंभित करने वाली भी होती है। उनके गुरु, दोस्त, मार्गदर्शक और करीबी एमजी रामचंद्रन ने ही लोगों के कहने में आकर उन्हें दूर कर दिया था। उन्हीं एमजीआर के शव के पास तक उन्हें नहीं जाने दिया गया। इसके बाद ही जयललिता ने अपने व्यक्तित्व में विरोधाभासों के ऐसे रंग भरे कि उनको समझना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया। वो गरीबों को सस्ते में दवाई और इडली उपलब्ध करवाने वाली अम्मा भी थीं और 10 हजार साडियों और आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप में जेल जाने वालीं जयललिता भी थीं। विधानसभा में हुए अपने अपमान के बदले में मुख्यमंत्री बनने वाली मजबूत नेता भी थीं और अपनी जिद के चलते वाजपेयी सरकार से समर्थन छीन लेने वाली सनकी राजनेता भी।
इन सब विरोधाभासों के बीच भी 2016 में जब वो वापस सत्ता में आईं तो पहले से ज़्यादा परिपक्व और लक्ष्य केन्द्रित नज़र आ रही थीं। पर तब तक शायद देर हो चुकी थी। नियति उनके पास अंतिम आदेश लेकर पहुँच चुकी थी। इसमें कोई शक नहीं की इस कद्दावर नेता ने समूचे तमिलनाडु पर गहरी छाप छोड़ी। पर यहाँ से आगे तमिलनाडु की व्यक्ति केन्द्रित, सस्ती योजनाओं पर आधारित राजनीति कहाँ जाएगी, ये ज़्यादा बड़ा सवाल है। क्या बरसों से तमिलनाडु में अपनी पैठ जमाने के लिए प्रयासरत भाजपा और कांग्रेस व्यक्तिवाद और द्रविड़ राजनीति के इस चक्रव्यूह को भेद पाएँगे? मरीना समुद्र तट के किनारे से एमजीआर और जयललिता की समाधियाँ भी शायद ये ही देखने को बेताब होंगी।