निश्चित ही जीतनराम माँझी अच्छे वक्ता नहीं हैं। वो अच्छे नेता भी नहीं हैं और कुशल राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। वो अटल बिहारी वाजपेयी तो कतई नहीं हैं जो अपनी हार को भी जीत में बदलना जानते हों। बिहार विधानसभा में पिछले 15 दिनों से जारी प्रहसन का यों पटाक्षेप होगा ये किसी ने नहीं सोचा था। नाटक का अंत पता होने के बाद भी किरदार को दमदारी से निभाने का जो मौका जीतनराम मांझी के पास था वो उन्होंने खो दिया। अचानक यों पर्दा गिर जाने से नाटक की निर्देशक भारतीय जनता पार्टी भी भौंचक होनी चाहिए। और अगर ये अंत भी उन्हीं के निर्देश पर हुआ है तो इससे घटिया निर्देशन नहीं हो सकता।
नीतीश कुमार को घेरने की कोशिश में लगी भाजपा ने ख़ुद अपनी किरकिरी करवा ली है। अपने पूरे 9 महीने के कार्यकाल में माँझी ने जब भी ज़ुबान खोली, अपनी छवि ख़राब ही की। आज वो उस सारे बोले-करे से आगे जाकर अपनी एक नई राजनीतिक पारी की ज़मीन तैयार कर सकते थे। पर वो तो कठपुतली थे, काठ के ही निकले। प्राण कहाँ से आते?
नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में भारी पराजय और भाजपा से अलग होने के कारण हो रही आलोचना से बचने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। 16 मई 2014 को आए परिणामों की सुनामी उनके अहं को पटककर चली गई थी। पद से हटकर वो त्याग की मूर्ति बनकर अपनी छवि भी चमकाना चाहते थे और मोदी से टकराए अपने अहं के बाद लोकसभा में मिली चोट के घाव भी सहलाना चाहते थे। उन्होंने अपनी जगह जीतनराम माँझी को चुना। सोचा ये कोई दमदार नेता तो हैं नहीं। अपने वनवास के दौरान पादुका पूजेंगे। अन्ना द्रमुक के पनीरसेलवम की तरह। महादलितों की सहानुभूति भी मिलेगी। पर जीतन भरत तो थे नहीं। वो तो जीतन'राम’ थे। ख़ुद राम बनने के चक्कर में भाजपा की गोद में जा बैठे। भाजपा भी कहाँ मौका चूकने वाली थी। पूरा नाटक रचा गया। स्क्रिप्ट लिखी गई। जोड़-तोड़ की भी पूरी कोशिश की गई।
बिहार विधानसभा में अभूतपूर्व और ऐतिहासिक स्थिति बनी। ऐसा तो पहली बार ही हुआ कि सत्ता पक्ष के विधायकों ने अपने लिए विपक्ष का स्थान माँग लिया। इस स्क्रिप्ट के आधार पर होने वाले नाटक को पूरा देश साँस थामे देखने के लिए तैयार था। पर माँझी ने अचानक पर्दा गिरा दिया। अगर वो दमदार नेता होते तो विश्वास मत के इस मंच का इस्तेमाल कर अपनी बात रखते, बताते कि वो भाजपा का समर्थन लेने के लिए क्यों मजबूर हुए। क्यों वो नीतीश कुमार की कठपुतली नहीं बने रहे? क्यों वो बिहार के महादलितों के लिए चिंतित थे? निश्चित ही किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से ज़्यादा प्रभावी तो सदन में दिया गया भाषण होता। सारे देश का मीडिया तो यों भी वहीं निगाहें जमाए हुए था। हार तो उनकी वैसे भी तय थी।
गुरुवार रात माँझी के घर हुए भोज ने ही मातम का माहौल तैयार कर दिया था जब गिने-चुने विधायक ही वहाँ पहुँचे। इस तय दिख रही हार के बाद भी उसे अपने हक में मोड़ने के लिए नेता चाहिए, जो माँझी नहीं निकले। आपको मंच तो छोड़ना है, पर किस अदा से, ये आपके ऊपर है। यों भी जिस निर्लज्ज तरीके से बिहार में विधायकों को अपने पक्ष में करने की कोशिश हुई वो राजनीति के पतन का नग्न प्रदर्शन है। सीधे-सीधे कहा जा रहा था कि हमारे साथ आ जाओ मंत्री बना देंगे। नीतीश खेमे ने भी सभी तरीके अपनाए।
अब अगर माँझी सारा ठीकरा विधानसभा अध्यक्ष पर फोड़ रहे हैं तो ये खिसियानी बिल्ली के खंभा नोंचने वाली बात है। बहरहाल, इस पूरे प्रहसन से भाजपा को कितना लाभ होगा, ये तो आने वाला समय ही बताएगा। पर एक बड़ा सबक जो भाजपा को ले लेना चाहिए वो ये है कि अब उसे स्थायी और लंबे समय के उपायों से सत्ता में आने की कोशिश करना चाहिए बजाय कि ‘शॉर्ट-कट’ अपनाने के। दिल्ली के बाद अब बिहार से भी यही संदेश है कि जमीनी काम करो और नेटवर्क मजबूत करके सत्ता में आओ लहर से जो होना था वो तो हो चुका।