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व्यापमं, मीडिया और रंग दे बसंती

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जयदीप कर्णिक

मैं अक्षय सिंह को नहीं जानता। ऐसे ही मैं निर्भया, आरुषि और जेसिका लाल को भी नहीं जानता था। मैं तो तेजस्वी तेस्कर को भी नहीं जानता था। इन सबमें क्या समानता है? और इस सबका राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म रंग दे बसंती से क्या लेना-देना है? अगर आपने फिल्म देखी है और पिछले दो दिनों में अचानक व्यापमं घोटाले को मिले राष्ट्रव्यापी कवरेज को आप देख रहे हैं तो आप ख़ुद ही तार आपस में जोड़ लेंगे।
बहरहाल, सबसे पहले तो अक्षय को श्रद्धांजलि। जो कुछ उनके बारे में पढ़ा, देखा सुना- वो एक समर्पित पत्रकार थे। ऐसे समय जब चेहरा दिखाने और बाय लाइन पाने की होड़ मची हो, वो अपनी खोजी पत्रकारिता के जुनून में लगे हुए थे। आखिरी पलों में उनके साथ मौजूद रहे उनके कैमरामैन और साथी संवाददाता राहुल करैया। इन दोनों की पूरी दास्तां भी सुनें तो लगता है कि वो अपना काम बेहतर जानते थे और व्यापमं घोटाले में हो रही मौतों की कड़ियों को जोड़ने की कोशिश कर रहे थे।
 
जो दास्तां सुनी उससे ये पता लगाना और कठिन होता जा रहा है कि अक्षय की मौत महज एक हादसा थी या कि इसमें कोई षड्‍यंत्र भी हो सकता है। पर जिन परिस्थितियों में और जिस घोटाले के कवरेज के दौरान उनकी मौत हुई है, ये बहुत ज़रूरी हो गया है कि इस पूरी घटना की हर कोण से गहन जांच की जाए और ये पता लगाया जाए कि हमने 36 साल के इस युवा और होनहार पत्रकार को यों अचानक क्यों खो दिया?
 
अब सवाल यह है कि क्या देश की राजधानी में बैठा तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया राज्यों और शहरों में होने वाली बड़ी-बड़ी घटनाओं को लेकर तभी यों जागेगा जब उसके तार दिल्ली से जुड़ेंगे? क्या इस पूरे घोटाले को यों जोर-शोर से उठाने के लिए अक्षय की मौत ज़रूरी थी? आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 32 और कांग्रेस तथा अन्य स्वतंत्र दावों के मुताबिक 45 से ज़्यादा ऐसे लोग मारे जा चुके हैं जो इस घोटाले से जुड़े थे। 
 
इन मौत के आंकड़ों की भी क्या ज़रूरत है। क्या ये आंकड़े काफी नहीं हैं कि इस घोटाले के सुराग 2006 से ही मिलने शुरू हो गए थे? या ये कि इसके ज़रिए 2200 से ज़्यादा गलत भर्तियां हुई हैं। 1700 से ज़्यादा गिरफ्तारियां हुई हैं और 500 से ज़्यादा आरोपी फरार हैं?
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इस सारी फेहरिस्त और इन आंकड़ों की भी क्या ज़रूरत है? क्या इतना ही काफी नहीं है कि सरकार की नाक के ठीक नीचे, सरकार के ही लोगों की मिलीभगत से एक पूरा ऐसा तंत्र काम कर रहा था जो समाज में ऐसे डॉक्टर, इंजीनियर और अधिकारी भेज रहा था जिनके पास कोई योग्यता नहीं है!! इनमें से डॉक्टर को लेकर ज़्यादा चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि समाज डॉक्टर को भगवान मानता है। हमारी सेहत और हमारी जान उनके हाथ में है। ऐसे में जो नाकाबिल लोग हमारा इलाज करने चले आए हैं उनको लेकर क्या समाज भीतर तक हिल नहीं जाएगा? और इन्हीं के बरअक्स उन होनहारों का क्या जो काबिल होते हुए भी डॉक्टर नहीं बन पाए? जैसे भोपाल की तेजस्वी तेस्कर जो पढ़ने में होशियार थी पर उसका पीएमटी में चयन नहीं हुआ और उसने झील में कूदकर जान दे दी। क्या उसकी और ऐसी तमाम अन्य हत्याओं का दोष व्यापमं के आरोपियों के सिर नहीं होना चाहिए? क्या प्रतिभा की हत्या नापने और उसके लिए सजा देने का कोई तरीका या पैमाना भी हमारे पास है?
 
क्या इतना सब काफी नहीं था जो इस पूरे मामले पर हमारा 'राष्ट्रीय मीडिया' लगातार धारदार ख़बरें देता, मजबूर करता की जाँच सही और तेज़ हो? उसके लिए अक्षय की मौत का इंतज़ार क्यों? जैसा रंग दे बसंती के नौजवान थे, जो अपने साथी की मौत के बाद देश में हो रहे रक्षा घोटाले को लेकर जागे और फिर बागी हो गए!! मीडिया तो उन नौजवानों से समझदार मानता है ख़ुद को? निर्भया कांड दिल्ली में ना हुआ होता तो क्या इतना कवरेज मिलता? दिल्ली के ही सेंट स्टीफन कॉलेज के यौन प्रताड़ना प्रकरण को इतनी अधिक तवज्जो क्यों? क्योंकि वो “बड़े-बड़ों” का कॉलेज है? जब आरुषि हत्याकांड की जाँच सीबीआई से हो सकती है तो फिर इतने बड़े और इतनी मौतों वाले घोटाले की जाँच सीबीआई से क्यों नहीं?
 
क्या मीडिया इस बात का भी ईमानदार विश्लेषण करेगा कि क्यों मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में ये मुद्दा ख़बरों से क्यों ग़ायब था? हमें दिल्ली में पानी, बिजली और कचरे की समस्या के बारे में तो ठीक-ठीक पता है पर देश के हृदय प्रदेश में कैसे समाज की शिराओं में ज़हर घोल दिया गया उसकी कोई ख़बर हम क्या हम नहीं लेंगे? या उसे बस कुछ जगह देकर छोड़ देंगे?
 
 
उम्मीद है कि अक्षय की मौत के बहाने से ही सही इस लड़ाई को आख़िर तक लड़ा जाएगा और एक पूरी पीढ़ी की मौत के लिए ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा मिलेगी......। 
 

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