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अच्छे दिन कैसे आएँगे......?

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जयदीप कर्णिक

अच्छे दिनों का ये जुमला दरअसल इतना घिस चुका है कि इसे शीर्षक के रूप में इस्तेमाल करते हुए भी थोड़ा उदासी का भाव आ जाता है। पर क्या करें पिछले साल की तपती गर्मी में तपा और उछला ये नारा अब तक गरम बना हुआ है। “अच्छे दिन आने वाले हैं, हम मोदी जी को लाने वाले हैं” ये नारा गूँजा ही इतनी जोर-शोर से था कि आकलन भी इसी को आधार बनाकर होगा। आपने कहा– अबकी बार मोदी सरकार, जनता ने कर दिया। आपने कहा कि मोदी सरकार आने से अच्छे दिन भी आएँगे। सो अब आकलन का आधार तो ये अच्छे दिन बनेंगे ही।
अच्छे दिनों पर सीधे और लगातार प्रहार इसलिए भी होते रहेंगे क्योंकि ये बहुत ही विषयनिष्ठ मामला है यानी  “सब्जेक्टिव” है। इसके कोई तय पैमाने नहीं हैं। अच्छे दिन कोई ऐसी स्थिति तो है नहीं कि आप किसी पैथॉलोजी लैब में जाकर जाँच करा लें और पता लगा लें कि अच्छे दिन आए कि नहीं आए? ना केवल समाज के हर वर्ग के लिए बल्कि हर व्यक्ति के लिए अच्छे दिन के मायने अलग-अलग हैं। ये भी बहुत संभव है कि आप पूछने निकलो तो लोग ठीक से ये ना बता पाएँ कि उनके लिए अच्छे दिन का मतलब क्या है। ये भी होगा कि लोग आज कुछ बोलेंगे कल कुछ और। सो अच्छे दिन को लेकर ये वबाल तो मचा ही रहेगा।
 
बहरहाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी अपनी सरकार के एक साल पूर्ण होने पर मथुरा रैली में अपने एक घंटे के धाराप्रवाह भाषण में भी इसी नारे के साथ ही अपना आकलन किया है। अलग ये था कि उन्होंने बजाय ये कहने के कि अच्छे दिन आ गए हैं ये कहा कि बुरे दिन चले गए हैं। निश्चित ही अगर अच्छे दिन आ जाएँगे तो बुरे दिन चले ही जाना चाहिए। पर क्या सच में बुरे दिन चले गए हैं? और क्या सच में समूचे भारत के लिए एक साथ बुरे दिनों का चले जाना और अच्छे दिनों का आ जाना संभव है? क्या पूरे के पूरे 125 करोड़ लोगों के लिए अच्छे दिन लाए जा सकेंगे, वो भी इतनी जल्दी? मोदी जी के बाकी तमाम नारों जैसे स्वच्छता अभियान या डिजिटल इंडिया का तो फिर भी वस्तुनिष्ठ आकलन हो सकता है पर इस अच्छे दिन के लिए तो वर्गवार, व्यक्तिवार आकलन गंभीर मसला हो सकता है। 
 
हम किसी बड़े दर्शनिक सिद्धांत या दृष्टांत का हवाला ना भी दें तो भी रोटी, कपड़ा और मकान को इंसानी ज़रूरत माना गया है। आज के समय में बुनियादी ज़रूरतें इससे भी ऊपर जा चुकी हैं पर ये तीन तो बनी हुई हैं और सर्वमान्य हैं। अर्थव्यवस्था के पेचीदा आँकड़ों में पड़े बगैर हम बहुत संक्षेप में ही इनको देख लें –
 
रोटी–
दुष्यंत कुमार जी ने कहा –
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ 
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ
हालाँकि इसके बर-अक्स ये भी ठीक नहीं कि हम फुटपाथ पर लेटे एक भूखे ग़रीब को पूरे देश का प्रतिनिधि चेहरा मान लें और हाय-कलाप करें। जो लोग मेहनत कर के कमा रहे हैं वो ख़रीद के रोटी भी खा रहे हैं। कैसे और किस कीमत पर ये ज़रूर लंबी बहस का मसला है। 
 
कोई पाँच सितारा होटल में दो लोगों के लिए दस हज़ार रुपए का बिल चुका रहा है और कोई 20 रुपए में वड़ा पाव खा रहा है। ठीक है जिसके पास है वो खर्च कर रहा है। पर आकलन इस आधार पर होगा कि घर में भोजन की थाली के क्या हाल हैं। दाल फिर 100 रुपए किलो है और सब्जियाँ 40-50 रुपए किलो से ऊपर। अगर आपको ख़ुद रोज़ हरी सब्जी ख़रीदने से पहले सोचना पड़ रहा है तो बहुत अच्छे दिन तो नहीं हैं।
 
रोटी को लेकर एक और अहम मुद्दा ये है कि अन्न उगाने वाला किसान और उसे ग्रहण करने वाला आम आदमी दोनों ही इसको लेकर दुखी हैं। सारे नहीं, पर बहुत सारे। जैसा कि इकबाल कह गए –
 
जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर ग़ोशा-ए-गंदुम को जला दो
(दहकाँ- किसान, ग़ोशा-ए-गंदुम – गेहूँ की बाली)
 
कपड़ा– तन तो हर कोई ढँक ही लेता है। कोई चीथड़े से कोई लुई फिलिप से। पर हाँ जिसे अच्छे कपड़े पहनने की आस है और वो शो रूम के बाहर टकटकी लगाए खड़ा है तो फिर उसे अच्छे दिनों का इंतज़ार करना पड़ेगा। बात फिर वही है कि भले ही सारा हिंदुस्तान नंगा नहीं घूम रहा पर वो तन ढँकने के लिए जो जतन कर रहा है उसमें तो “चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन”..... और क्या कहिए?
 
मकान– ये बहुत गंभीर और पेचीदा मसला है। यहाँ बहुत हताशा और निराशा है। खुद के लिए एक अच्छा मकान अगर आज से 15 साल पहले पहुँच से बाहर था तो आज भी है। ज़मीन के दाम भी आसमान छू रहे हैं और मकान के भी। अगर तनख़्वाह दुगुनी हुई है तो घर और ज़मीन के दाम चौगुने। तो आबुदाना ढूँढ़ने की कवायद जस की तस है। नए ज़माने के ज़मींदार घोड़े पर बैठकर हंटर लेकर नहीं आते, वो तो ज़मीन और घर का सपना देखने वालों को लूटते चले जाते हैं। 
 
मद्दीवाड़ा है तो वो बेचने वाले के लिए। प्रॉपर्टी के कारोबारी के लिए। आम आदमी के लिए घर तो सपना ही है। घर इतने भयानक महँगे हो गए हैं और ऐसी-ऐसी कारीगरी हुई है जमीन को लेकर की यहाँ तो ख़ैर सब कुछ समेटा ही नहीं जा सकता। पर किसी के पास चार मकान और दो फ्लैट हैं और कहीं ज़िंदगी किराए के मकान में कट रही है।
 
इसके अलावा किसी भी समाज की रीढ़ माने जाने वाली दो और बुनियादी ज़रूरतों को देख लेते हैं। ये हैं –शिक्षा और स्वास्थ्य। इन दोनों ही मामलों में पिछली सरकारें ही नहीं एक देश के रूप में भारत भी बुरी तरह विफल हुआ है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ दोनों ही इतने महँगे हो गए हैं कि उच्च वर्ग के भी पसीने छूट जाते हैं। आम आदमी की तो बिसात ही क्या? ऐसा लगता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही मामलों में जनता को पैसे के भूखे भेड़ियों के सामने छोड़ दिया गया हो। जितना लूट सकते हो लूट लो। 
 
शिक्षा– अच्छे निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना मजबूरी है क्योंकि अच्छे सरकारी स्कूल हैं नहीं। निजी स्कूल जो फीस बोलें वो दो और सहो। यहाँ पाठ्यक्रम की बात तो हम कर ही नहीं रहे क्या हमारी शिक्षा हमें ज्ञान भी दे पा रही है? क्या डिग्री सचमुच प्रतिभा का पैमाना है? ये सब सवाल अलग बहस और अलग आलेख का मुद्दा होंगे पर क्या हम बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं या स्कूल के नाम पर खुल गई दुकानों में जहाँ सब बस पैसे के लिए है और बिकाऊ है। फिर वो ही बात, सारे ख़राब नहीं हैं, पर बहुत सारे ख़राब हैं। अपवाद हैं। पर अफसोस ये ही है कि अच्छे स्कूल अपवाद हैं, बुरे नहीं। और जिस समाज में अच्छाई अपवाद के रूप में पाई जाती हो वो बुराई बहुतायत में मिलती हो वो समाज कैसे अच्छे दिनों का नारा बुलंद कर सकता है?
 
स्वास्थ्य– किसी भी ठीक-ठाक अस्पताल में भर्ती हो जाइए। इलाज होगा कि नहीं ये बाद में लेकिन बिल तगड़ा आएगा। बीमा है तो और भी तगड़ा। उसके बाद भी सही इलाज मिलेगा की नहीं कोई ग्यारंटी नहीं। ये ठीक है कि चिकित्सा शिक्षा महँगी है। उपकरण महँगे हैं। सुविधा उपलब्ध करवाने में खर्च होता है। पर खर्च कर के भी सुविधा मिले तो? भरोसा तो हो कि जबरन जाँच या ऑपरेशन नहीं हो रहे। इलाज बिलकुल ठीक मिलेगा। खर्च को कम करने के लिए क्या हो रहा है? इन खर्चों पर कोई नियमन है? फिर वो ही यहाँ भी अच्छाई है पर अपवादस्वरूप....। ज़्यादातर है तो लूट लेने की लालसा।
 
ये भी हमको ईमानदारी से स्वीकारना होगा कि ये जो समस्याएँ हैं और जो क्षरण है ये कई सालों में आया है। इसके होने के लिए ये सरकार ज़िम्मेदार नहीं है, पर इसे सुधार नहीं पाई या उस दिशा में कदम भी नहीं उठा पाई तो फिर इसे अच्छे दिनों का नारा बुलंद नहीं करने देंगे। इस सरकार से ये उम्मीद करना की ये यकायक ठीक हो जाएगा, बेईमानी होगी। पर इस दिशा में सोच और काम नहीं होगा तो अच्छे दिन बस जुमले में ही रह जाएँगे। ऐसे ही और मोर्चों की पड़ताल भी होगी पर ये वो पाँच बुनियादी मोर्चे हैं जिससे हर आदमी को हर रोज़ जूझना है। 
 
ये भी सही है कि देश के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी भी सरकार के पहले एक साल का इतना आकलन नहीं हुआ है। पर ये भी सही है कि ये पहली पूर्ण बहुमत वाली गैर-कांग्रेसी सरकार है जिसमें केवल एक पार्टी ने ये कमाल किया हो। तब आपको इस तरह के परीक्षण-निरीक्षण के लिए तो तैयार रहना ही होगा। सवालों के लिए तैयार रहना होगा और जवाब भी ढूँढ़कर लाने होंगे। आपकी ज़िम्मेदारी है। आख़िर आप ही ने अच्छे दिन लाने का वादा किया.... और हमने भरोसा कर लिया।
 

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