लुटियंस दिल्ली के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बड़े और कड़वे सच को उजागर किया है। एक टीवी समाचार चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि - 'दिल्ली में सत्ता के गलियारों में एक विशेष क़िस्म की मानसिकता के लोग हावी हैं, ये एक तरह के ठेकेदार हैं जिन्हें कुछ भी देशज या ज़मीन से जुड़ा पसंद नहीं आता। इन लोगों ने सरदार पटेल से लेकर मोरारजी देसाई और देवेगौड़ा तक सबकी चुनिंदा आदतों या प्रतीकों का प्रचार कर उन्हें गँवार साबित करने की कोशिश की है।' - उनके सभी उदाहरणों से पूरी तरह सहमत ना भी हों तो भी इस गिरोह की मौजूदगी और उसके कारनामे एक ख़तरनाक सचाई है। अंग्रेज़ीयत से भरे ये लोग बस एक ख़ास क़िस्म कि मानसिकता को जीते हैं, इनके दिमाग़ में एक अलग ही भारत बसता है जो 'इंडिया' है.....मुट्ठी भर होने पर भी ये इंडिया वाले नीतियों और निर्णयों पर भारी पड़ते रहे हैं।
देश की प्राथमिकताएँ ग़लत तय करने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। गाहे-बगाहे सौ सुनार की एक लुहार की वाले अंदाज में इन पर चोट भी होती है, जिससे ये बिलबिला जाते हैं। पर ये फिर से जुट जाते हैं अपने इंडिया को साकार करने में। दिक़्क़त ये है कि इनका इंडिया समावेशी नहीं है। वो अपने दायरों और अपने स्वार्थों में ही जीता है। वो अपने महल को भारत के ही श्रम और ऊर्जा से रोशन करने में कोई गुरेज़ नहीं करता पर उसी भारत को बहुत हिक़ारत की नज़र से देखता है। भारत के सामने से निकलते वक़्त नाक पर रुमाल रखने वाले ये इंडिया वाले अपने वातानुकूलित कमरों और देर रात की सोशलाइट पार्टियों में ही ख़ुद को महफ़ूज़ पाते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि ये इंडिया भी भारत का हिस्सा है, बेचारे अधिकांश भारत वाले तो इनको भी राजवंश और ब्रितानी हुकूमत की ही अगली कड़ी मानकर उनके सामने हीन भाव से भरकर झुके रहते हैं। बल्कि भारत वाले ज़बर्दस्ती इंडिया का चोला ओढ़ने की कोशिश करते रहते हैं।
इंडिया वालों को हालाँकि भारत कभी रास नहीं आता। भारत इन्हें असभ्य और जाहिल ही नज़र आता है। और ये सब केवल सत्ता के गलियारों तक ही सीमित नहीं है...लुटियंस दिल्ली वाली ये मानसिकता और उसके पोषक बहुत दूर तक और बहुत भीतर तक फैले हुए हैं। दिल्ली के बड़े-बड़े चैनलों के न्यूज़ रूम जाकर देख लीजिए - निर्णयों और संसाधनों पर इनके क़ब्ज़े ने कबाड़ा कर रखा है। ये खाई को बड़ा और गहरा करने में ही लगे रहते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस दर्द को बयाँ तो किया है पर इस दुष्चक्र को तोड़ने का हल भी ढूँढना होगा। ना ये आसान है ना जल्द हो पाएगा। लड़ाई लोगों से नहीं सोच से है, भाषा से नहीं विचार से है..... पर इस जीत से होकर ही ख़ुशहाल भारत की राह गुज़रती है.....