इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों ने इराक और सीरिया में न जाने कितने नरसंहार किए और न जाने कितनी ही महिलाओं, युवतियों और कम उम्र की लड़कियों का यौन शोषण किया, इसका कोई हिसाब नहीं है। इन नरपिशाचों ने तो मासूम बच्चों को भी नहीं बख्शा। आज सीरिया, इराक एवं आतंकवाद प्रभावित अन्य देशों के लोग यूरोप में शरण लेने के लिए याचना कर रहे हैं। वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक ने वर्ष 2014 के अंत में लिखे अपने संपादकीय 'बंदूक की नली से उगता सूरज' में आतंकी मंसूबों के संकेत दे दिए थे। प्रस्तुत है वही संपादकीय एक बार फिर....
बंदूक की नली से उगता सूरज
कई पंचांग हैं, कैलेंडर हैं, तारीख़ें हैं और नज़रिए हैं, वक्त को देखने के। हम कहीं से भी गिनें और कहीं भी ख़त्म करने की कोशिश करें, वक्त की अपनी रफ़्तार है और अपनी फितरत। वक्त को बाँधने और गिनने की ख़ामख़याली के बगैर इंसान का जीना भी तो दुश्वार है!! तो दो सफहे और उलट देने के बाद हम इस ख़याल में होंगे कि 2014 बीत गया है और 2015 आ गया है। इसी ख़याल के बर-अक्स हमें मौका मिलता है गुजिश्ता 365 दिनों को याद करने का। सो समय को गिनने की इस रस्म का ये एक हासिल तो है ही।
हिंदुस्तान की बात करें तो हमने 2013 की दहलीज से 2014 में कदम रखते वक्त नई, बेहतर और वैकल्पिक राजनीति का एक ख़ूबसूरत सपना देखा था। अन्ना आंदोलन की गूँज और निर्भया कांड की दहशत के बीच करवट ले रहे हिंदुस्तान के दिल में राजनीति और अव्यवस्था से मुक्ति के सपने पल रहे थे। दिल्ली ने सोचा कि बाकियों को तो देख लिया इस नई आम आदमी पार्टी को भी देख लिया जाए। सो दिल्ली ने परंपरागत राजनीति को पछाड़ते हुए एक नई नवेली पार्टी को सत्ता की चाभी पकड़ा दी। शीला दीक्षित जैसी नेता को अपनी सीट गँवानी पड़ी। पर जनता के लिए ये भी एक जल्द टूट जाने वाला दिवास्वप्न ही साबित हुआ। दिल्ली की सफलता सिर चढ़ गई और अपना घर संभालने की बजाए देश जीतने के ख़्वाब आँखों में तैरने लगे। “आप” के लिए स्थिति यह रही कि दुविधा में दोनों गए– माया मिली ना राम।
इस मोहभंग को और जनता की “अच्छे दिनों” की ख़्वाहिश को भुनाया नरेंद्र मोदी ने। अपनी पार्टी के भीतर और बाहर के तमाम अड़ंगों को पार करते हुए नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जब 26 मई, 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो भारत के इतिहास में एक नए अध्याय का पन्ना खुल चुका था। 16 मई 2014 को हिंदुस्तान में वोटिंग मशीनों से एक क्रांति का जन्म हुआ और देश के सपनों ने नरेंद्र मोदी का रूप ले लिया। राजनीति के निर्वात में देश को ऐसा नेतृत्व मिला जो हर पुराने पड़ चुके साँचे को तोड़कर नए रूपक गढ़ने पर आमादा है। वो पहले दिन से ही काम में भिड़ गए और विदेश के मंचों पर रॉक स्टार बनने से लेकर हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा की सरकार बनवाने तक वो हर जगह छा गए।
उनकी इस तेज़ी और इस छवि की 2015 में कड़ी परीक्षा होगी। ये सब एक तिलिस्म ना बनकर रह जाए और जनता का मोहभंग ना हो जाए इसके लिए और भी कड़ी मेहनत करनी होगी। संघ और राष्ट्र की आकांक्षाओं की पूर्ति करते हुए चीन और पाकिस्तान की चुनौतियों से निपटना, इससे कहीं अधिक कौशल की माँग करेगा। नरेंद्र मोदी से अपेक्षाओं का पहाड़ ना केवल बड़ा हुआ है बल्कि राहों में बिछे काँटों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है।
एक और बड़ी चुनौती जिसका सामना ना केवल नरेंद्र मोदी को बल्कि विश्व के तमाम नेताओं को करना होगा वो है फिज़ाओं में घुली बारूद की गंध। चाहे मिस्र हो, इराक हो, इसराइल हो, यूक्रेन हो, पेशावर का स्कूल हो या हमारे यहाँ असम और छत्तीसगढ़ के जंगल हों, बंदूक की गूंज और बारूद की गंध हर तरफ है। असहिष्णुता अपने चरम पर है। बामियान में बुद्ध की मूर्ति को तोप से उड़ाने वाले स्कूली बच्चों के लहू से होली खेलने में गुरेज़ करेंगे तो कैसे? वो इंसान से हैवान तो बनाए जा चुके हैं। उससे बड़ी विडंबना तो ये है कि जब इन्हीं बंदूकों का मुँह हमारी तरफ हो तो वो ‘अच्छा आतंकवाद’ बन जाता है।
इस छलावे को जन्म देने वाले अमेरिका, पाकिस्तान और चीन जब तक नहीं सुधरेंगे, दुनिया भुगतने को अभिशप्त है। अभी तो 2015 की नई सुबह का ये सूरज बंदूक की नली से ही निकलता हुआ दिखाई दे रहा है। हम अपनी तमाम सकारात्मक ऊर्जा के साथ, अपनी आशा और इंसानी जीवट के साथ इस नई सुबह के सूरज को सलाम करें और उम्मीद करें कि हम जल्द ही इसे बंदूक की नली की बजाय क्षितिज के छोर से ही उगता हुआ देखेंगे।