लाहौर में नवाज़ शरीफ़ के सिर सजी पठानी पगड़ी हवा में उछलकर अब ज़मीन पर पड़ी है। इस ग़ुलाबी पगड़ी का रंग भी अब ख़ून के छींटों से लाल हो चुका है। क्रिसमस पर मिली ख़ुशियाँ नए साल के दूसरे दिन ही शोक, गुस्से और मातम में बदल गईं। यों भी जब प्रधानमंत्री मोदी की चमत्कारिक लाहौर यात्रा हुई थी तब ही लग रहा था कि ये एक सपना है और सुबह होते ही नींद टूटने वाली है।
भारत-पाक संबंध इतने हसीन भी हो सकते हैं ये यकीन करना मुश्किल ही हो रहा था। पर जो सोचते हैं कि ऐसा होना चाहिए वो अपनी पूरी सकारात्मकता के साथ उसके पीछे खड़े थे। वो तो अब भी कह रहे हैं कि कुछ समय के लिए ही सही, वो सपना… सच ही था। पर भविष्य को लेकर आशान्वित बहुत से लोगों की तंद्रा पठानकोट के धमाकों ने तोड़ दी। सब हताश और अवाक हैं। प्रधानमंत्री मोदी के छप्पन इंच के सीने के पीछे से दरअसल उन करोड़ों लोगों की उम्मीदें भी चौड़ी होना चाह रही थीं जो भारत के बार-बार आहत होते स्वाभिमान को लेकर हताश थे।
पठानकोट हमले ने उसी स्वाभिमान पर फिर एक बार तगड़ा प्रहार किया है और इसीलिए 56 इंच के सीने पर सवालिया निशान दिखाई दे रहे हैं। एक बंद मुट्ठी थी जिसमें कई उम्मीदें थीं और वो खुलकर खाली हाथ होती सी दिखाई दे रही है। सचमुच ऐसा नहीं है, ये साबित करने के लिए बहुत पहाड़ हिलाने होंगे।
बहरहाल, भारत-पाक संबंध शुरू से ही बहुत पेचीदा रहे हैं। सवाल ये भी है कि आप किस पाकिस्तान से बात करें? उस पाकिस्तान से जहाँ तथाकथित रूप से जम्हूरियत है और जिसके वज़ीरे-आज़म मियाँ नवाज़ शरीफ हैं? या फिर उस पाकिस्तान से जिसे सेना और आईएसआई चलाते हैं? या फिर उस पाकिस्तान से जिसे हाफिज़ सईद जैसे आतंकी और उनके बनाए संगठन चलाते हैं? या फिर उस पाकिस्तान से जिसमें चीन की बहुत तगड़ी घुसपैठ हो चुकी है? इसीलिए जब हम नवाज़ शरीफ़ से गले मिलते हैं तो वो समूचे पाकिस्तान से गले मिल लेना नहीं होता। ... इसीलिए हमें नवाज़ शरीफ से ये कहना होगा कि मियाँ हम आपसे गले तब मिल पाएँगे जब आप सचमुच पूरे पाकिस्तान की नुमाइंदगी करो।
अगर इन सब बातों को कुछ देर के लिए अलग कर भी दें तो हम आख़िर पाकिस्तान से चाह क्या रहे हैं? यही ना कि वो हमारे यहाँ आतंकी भेजना बंद कर दे? और अगर वो नहीं मान रहा, वहाँ के आतंकी नहीं मान रहे हैं तो क्या हम हर बार इसी बात का रोना रोते रहेंगे? क्या हर हमले के बाद हम बस पाकिस्तान को और उसकी सरपरस्ती में पनप रहे आतंकवाद को कोसते रहेंगे? सैनिकों की मौत से बच्चे अनाथ हो रहे हैं, जो सुहागनें विधवा हो रही हैं, जो माँ अपने लाल खो रही हैं, उनके आँसू यों ही सूखते रहेंगे?
वो समंदर से आते हैं और पूरी मुंबई को हिलाकर रख देते हैं, हमें हेमंत करकरे, तुकाराम ओम्बले और विजय सालस्कर जैसे कई सपूत गँवाने पड़ जाते हैं तब जाकर 62 घंटे में हम हालात पर काबू पाते हैं?
क्या मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की शहादत से हमने कोई भी सबक सीखा है? बस इतना ही कि एनएसजी कमांडो पहले से पठानकोट भेज दिए थे!! हमला तो फिर भी हुआ!! 7 सपूत शहीद हुए, 21 घायल हुए, 6 दिन लग गए!! ये जवान कहीं चौराहे पर भीड़ में नहीं मरे, उस पठानकोट हवाई अड्डे की चारदीवारी के भीतर मरे जो भारत के सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण ठिकानों में से एक है!! पूर्व सूचना के बाद भी ये सब हुआ तो बिना सूचना के क्या हो जाता, इसकी कल्पना की जा सकती है।
एक एसपी को अगवा कर लिया, उसके बाद 12 घंटे से अधिक समय तक हम उन आतंकियों को ढूँढ़ नहीं पाए ये भी क्या पाकिस्तान की ग़लती है? पैसे या लड़कियों के जाल में फँसकर जो सैकड़ों जयचंद और मीर जाफर इस देश में तैयार हो रहे हैं उनको रोकने के लिए हमने क्या किया? पाकिस्तान फुसला रहा है और हमारे लोग फिसल रहे हैं तो क्या पाकिस्तान को रोएँ? इनकी शिराओं में राष्ट्रभक्ति का प्रचंड प्रवाह नहीं होने के लिए एक देश के रूप में हम सब विफल नहीं हैं क्या?
मुंबई में वो नाव से आ गए, यहाँ वो सड़क से आ गए.... कोई रोकने-देखने वाला ही नहीं है? सीमा पर कड़ी चौकसी क्यों नहीं है? पेट्रोल के दाम मत घटाओ और लगा दो सब पैसा सीमा और सेना को मजबूत करने में। अच्छे हथियार दो। जो घुसे, वो मरे तो आगे हिम्मत नहीं होगी। वहीं पठानकोट में सेना के 50 हजार जवान मौजूद थे उनसे बाद में सहायता ली गई, पहले क्यों नहीं? 9/11 के बाद अमेरिका पर कोई बड़ा हमला क्यों नहीं हो पाया है.... क्योंकि वे चौकन्ने हैं और कोई समझौता नहीं करते। हमारे पूर्व राष्ट्रपति और रक्षामंत्री तक की कपड़े उतरवाकर तलाशी ले लेते हैं और हम केवल नीली बत्ती देखकर गाड़ी को निकल जाने देते हैं?
इसी पंजाब में नशा बेचकर एक पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर देने के आईएसआई के षड्यंत्र को विफल करने के लिए हमने क्या किया? इस आतंकी हमले की राह भी नशे के इस कारोबार से होकर तो नहीं गुजरी है? पाकिस्तान जहर पिला रहा है और हम अपने युवाओं को वो ज़हर पीने दे रहे हैं? राजनीति की बिसात पर आखिर हम देश के स्वाभिमान को कब तक दाँव पर लगने देंगे?
फौज के आधुनिकीकरण का काम इतने धीमे क्यों हो रहा है? किसी भी आतंकी घटना का जवाब देने में हमें इतना वक्त क्यों लग जाता है? पठानकोट में जहाँ हमला हुआ वो 22 किलोमीटर का दायरा है इसलिए? मुंबई में क्या हुआ था? गुरुदासपुर में भी 12 घंटे लग गए थे। और वहाँ पेरिस में पूरे शहर का दायरा था। फुटबॉल स्टेडियम था, एक सभागार था, पर 6 से 8 घंटे में सब काबू में था। ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए बेहतर प्रशिक्षण और उपकरण चाहिए। समय सीमा में काम होना चाहिए। केवल पाकिस्तान का रोना मत रोइए।
यों तो गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 26 वर्षों में भारत पर इस पठानकोट के हमले को मिलाकर 136 आतंकी हमले हुए हैं। इनमें 2000 लोग मारे गए हैं और 6 हज़ार से ज़्यादा घायल हुए हैं। इन तमाम हमलों ने भी अगर हमें आतंक से निपटने का हुनर और धाक जमाने का हौसला नहीं दिया है तो ग़लती हमारी है।
पाकिस्तान को सुधारना हमारा मकसद नहीं है, मकसद हमारे मुल्क को महफूज रखना है। इस मकसद को पूरा करने के लिए पहले अपने घर को चाक-चौबंद रखना होगा। साथ ही पाकिस्तान को ऐसा सबक सिखाना होगा कि वो इधर आँख उठाकर भी ना देख पाए। वहाँ बैठे आतंकियों के हौसले बुलंद करने के लिए तो चीन सहित कई ताकतें तैयार बैठी हैं, लेकिन हम अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए क्या कर रहे हैं? हर आतंकी हमला हमारे स्वाभिमान को, राष्ट्रीयता के हमारे गुरूर को छलनी कर देता है। इसकी रक्षा पाकिस्तान के सुधर जाने से नहीं हमारे पुरुषार्थ से ही हो सकती है।