रियो ओलंपिक के बैडमिंटन फाइनल में स्पेन की कैरोलिना मारिन बहुत अच्छा खेलीं...पीवी सिन्धु तो लोगों का दिल और चाँदी कल ही जीत चुकीं थीं। क्रिकेट के दीवाने इस देश में अगर लोगों ने आधी रात तक जागकर दीपा करमाकर का वॉल्ट देखा और पीवी सिन्धु के फ़ाइनल के लिए चौक-चौराहों से लेकर घर के टीवी तक सब हर शॉट, हर पॉइन्ट को साँस थामे देखते रहे तो ये भी शुभ-संकेत हैं....
जिन बच्चों और उभरते खिलाड़ियों ने ये मुक़ाबले देखे उन्हें पता चल गया होगा कि हार और जीत के बीच कितना कम फ़ासला होता है और उन्होंने यह भी देखा होगा कि ओलंपिक चैम्पियन बनने के लिए क्या करना होता है, कितनी मेहनत लगती है, एकाग्रता चाहिए, समर्पण चाहिए, जीत की भूख चाहिए, परफ़ेक्शन चाहिए....कि राष्ट्र-गान तो सोना जीतने वाले का ही बजता है....
खेलों के सबसे बड़े कुंभ ओलंपिक में मैडल जीतना एक बहुत कठिन तपस्या है, कठोर साधना है...कुछ माता-पिता अगर अपने बच्चों को खेलों में आगे बढ़ाने के लिए संकल्पित होंगे तो अच्छा ही है....ऐसे मां-बाप बधाई के पात्र हैं, जो अपनी सुख-सुविधाओं की कुर्बानी देकर अपने बच्चों के सपनों को उड़ान देते हैं। वरना तो इस देश में हर तीसरा बच्चा सचिन और कोहली बनना चाहता है।
दीपा, साक्षी और सिंधु ने जो दिल जीते हैं वो उमंग, उत्साह और जज़्बा यों ही ज़ाया ना हो जाए ये बहुत ज़रूरी है....वरना हमें स्मृति-लोप की बहुत भयंकर बीमारी है....शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस... राजनेता और व्यवस्था इसका बहुत लाभ उठाते हैं, क्योंकि हम 'अपने कामों' में लग जाते हैं....सिर्फ ओलिम्पिक टू ओलिम्पिक जागने से कुछ नहीं होगा...आखिर हमारे नीतिकार एक ओलंपिक से दूसरे ओलंपिक तक के बीच करते क्या हैं? क्यों नहीं हमारे यहां भी उस तरह की तैयारी होती, जैसी दूसरे देश करते हैं?
इस देश के खेल संगठनों की नौकरशाही बहुत बड़ी बाधा है जो रोज़ कई प्रतिभाओं को मारती है...भारत में खेल महासंघों में राजनेता कुंडली मारकर बैठे हैं, जिन्हें वातानुकूलित कमरों में बैठकर यह पता ही नहीं होता है कि मैदान पर जी-जान लगाकर पसीना बहाने वाले खिलाड़ी का दर्द क्या होता है। हमें ऐसी व्यवस्था को बदलने के लिए लड़ना होगा.... लगातार... सिन्धु को साक्षी मानकर इस दीपा की लौ को जिलाए रखना होगा....फ़िलहाल तो सिन्धु को चाँदी की बधाई और गुरू पुलेला गोपीचंद को सलाम....
सलाम इसलिए भी कि गोपीचंद खुद खिलाड़ी रहे हैं, उन्होंने खिलाड़ियों के संघर्ष और दर्द को बहुत करीब से जीया है। गोपीचंद के बैडमिंटन जुनून, रैकेट और विदेश यात्राओं के लिए मां को अपने गहने बेचने पड़े। 2001 में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियन बनने के पूर्व गोपीचंद के घुटनों में दर्द था और इतने पैसे भी नहीं थे कि ऑपरेशन करवा सकें।
डॉक्टर राजगोपाल ने गोपीचंद के दर्द को समझा और मुफ्त में ऑपरेशन किया, लेकिन वादा लिया कि वो ऑल इंग्लैड में विजेता बनकर लौटेंगे। गोपीचंद ने अपना वादा निभाया। ऐसी नौबत ही क्यों आती है कि एक होनहार खिलाड़ी को मदद के लिए हाथ फैलाने पड़े?
भारत में एक कोच कितना बेबस होता है, इसका उदाहरण गोपीचंद से भला दूसरा और क्या हो सकता है कि जिन्हें कोचिंग एकेडमी खोलने के लिए सरकार ने 5 एकड़ जमीन तो दे दी थी, लेकिन एकडेमी के निर्माण के लिए गोपीचंद मदद के लिए दर दर भटकते रहे। किसी तरह उनकी एकेडमी बनी, वो भी अपना खुद का घर गिरवी रखकर। इस एकेडमी से ही साइना नेहवाल, पीवी सिंधु और श्रीकांत, कश्यप जैसी प्रतिभाएं तराशी गई हैं, जिन्होंने ओलंपिक के मंच पर देश का गौरव बढ़ाया है।
रियो ओलंपिक में कुश्ती का कांसा जीतने वाली साक्षी मलिक का वास्ता भी गरीबी से रहा। आज भले ही उन पर 'धनवर्षा' हो रही है लेकिन उनके गुरबत के दिनों में उन्होंने कितना पसीना बहाया होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। साक्षी के माता-पिता को अपनी बेटी की ट्रेनिंग के लिए रोहतक में अपना मकान तक बेचना पड़ा था। ओलंपिक आते ही पूरा देश खिलाड़ियों से सुनहरी सफलता की उम्मीद लगाने लग जाता है, लेकिन हम अपने गिरेबां में कभी झांककर तो देखें कि इन खिलाड़ियों ने ओलंपिक के मंच तक पहुंचने के लिए कितना संघर्ष किया है। फिलहाल तो देश की दोनों बेटियों को रियो की कामयाबी पर एक बड़ा सा 'सलाम'...