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नरेन्द्र मोदी से बड़ा मोदी का तिलिस्म

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जयदीप कर्णिक

PTI

भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी ने अन्तत: दिल्ली पर भाजपा की विजय पताका फहरा ही दी। यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि उनके कठिन परिश्रम और सही रणनीति का ही परिणाम है। मोदी की गुजरात विजय के बाद वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक द्वारा लिखा गया संपादकीय आज भी उतना ही सटीक और सामयिक है, जितना कि उस समय था।

कोई चमत्कार ही नरेंद्र मोदी को गुजरात में हरा सकता था। .... और चमत्कार नहीं हुआ। इसीलिए किसी को आश्चर्य भी नहीं हुआ। अप्रत्याशित या अनहोनी हो जाने के इंतजार में सनसनी का मजा लेने वाले लोगों को तो जाहिर है निराशा ही हुई। अब वो प्रलय से होने वाली सनसनी के इंतजार में अपना समय ख़राब कर सकते हैं।

बहरहाल, कांग्रेस और केशुभाई के बूते की बात तो यह थी भी नहीं। उन्होंने तो एक तरह से पूरा मैदान ही खुला छोड़ दिया था मोदी के लिए। मोदी तो यों भी कांग्रेस और केशुभाई से लड़ नहीं रहे थे। वो अपने आप से लड़ रहे थे, अपने अहं से, अपनी छवि से, अपने लोगों से, अपनी पार्टी से, अपने संघ से। ... और वो चुनाव जीत गए हैं... लेकिन सिर्फ चुनाव.... बाकी लड़ाइयां अभी बाकी हैं। आगे की लड़ाई के लिए इस चुनाव को जीतना उनके लिए बेहद जरूरी था, नहीं तो आगे की सीढ़ी ही टूट जाती।

कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है, उस फार्मूले की तलाश में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी ...पर वो इस फार्मूले को नहीं गढ़ पाए
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इस जीत ने उनके अहं को पुष्ट किया है, आगे की लड़ाई के लिए आवश्यक गोला-बारूद और असला जुटाया है, उनके विरोधियों को बगलें झांकने के लिए मजबूर किया है। मगर आगे अब भी लंबी लड़ाई है। उनकी छवि और अपने आप से लड़ाई बहुत बड़ी और अहम है। अपने ईगो को बनाए रखते हुए सर्वस्वीकार्य हो जाने की उनकी छटपटाहट को अभी मुकाम तक पहुंचना है। स्वीकार्यता गुजरात में नहीं देश में।

गुजरात में लगातार तीसरी बार स्वीकारे जाने की सीढ़ी पर चढ़कर ही वो देश की स्वीकार्यता तक पहुंच सकते थे, यह उन्हें भी अच्छे से पता था, लेकिन अगली छलांग बहुत लंबी है और रोड़े अटकाने वाले भी बहुत। पर अगर वो अपने आप से लड़ाई जीत लेंगे तो इस छलांग के लिए ख़ुद को तैयार पाएंगे।

इस चुनाव की अहमियत उन्हें पता थी इसीलिए तो जब कांग्रेस गुजरात में अपनी चुनावी रणनीति पर विचार ही कर रही थी तब वो अपने चुनाव अभियान को ख़त्म करने कि स्थिति में आ चुके थे। सद्भावना और विवेकानंद यात्रा उनकी चुनावी रणनीति का ही हिस्सा थीं। इसीलिए वो अपने अधिकांश विधायकों को पुन: टिकट देने की हिम्मत दिखा पाए। अगर उन्हें भीतरघात का सामना नहीं करना पड़ता तो निश्चित ही वो 10-15 सीटें और जीत जाते।

चुनावी रणनीति बनाने में नरेंद्र मोदी को उनका संघ प्रचारक होने का अनुभव काम आता है। एक तपे-तपाए, मंजे हुए जमीनी कार्यकर्ता के रूप में वो हर मोर्चे पर अपनी पकड़ बनाए रखते हैं। मोदी की एक ख़ासियत यह है कि अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के बावजूद वे अपने नेतृत्व को केवल फतवों तक या हिंदूवाद से जुड़े भावनात्मक ज्वार तक ही सीमित नहीं रखते। इन कमियों की वजह से ही बाल ठाकरे 40 सालों में केवल एक बार महाराष्ट्र में सरकार में आ पाए, वो भी गठबंधन के रास्ते।

कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है, उस फार्मूले की तलाश में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी ...पर वो इस फार्मूले को नहीं गढ़ पाए। वो बाबरी मस्जिद के ध्वंस और राम मंदिर की सीढ़ी लगाकर भी वहां नहीं पहुंच पाए और इंडिया शाइनिंग के रथ पर चढ़कर भी नहीं। ये जरूर है कि उनकी सारी कोशिश राष्ट्रीय कैनवास पर रही और वहां चुनौतियां अलग हैं। पर मोदी अगर गुजरात में रंग भरकर देश के एक बड़े वर्ग में ये छवि बना पाए हैं कि अगर वो प्रधानमंत्री बन पाए तो तस्वीर बदलकर रख देंगे, तो ये भी उनकी उपलब्धि है।

नरेंद्र मोदी ने इस जीत से अपने और दिल्ली के बीच की एक बड़ी बाधा दूर कर ली है.... पर ये वो भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली अभी दूर है ...
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मोदी को ये ठीक-ठीक पता है कि राजनीति, महत्वाकांक्षा और जनछवि के इस घोल में कब कितनी मात्रा में कट्टरता मिलानी है, कितना और कहां विकास करना है और वो कौन से जमीनी मुद्दे हैं, जिनके मूल से ये घोल तैयार होता है। उन्होंने काम भी किया और काम का प्रचार भी किया। लोगों ने उन्हें वोट दिया और जिताया। इसका पूरा श्रेय तो उन्हें देना ही होगा। जो लोग ये श्रेय मोदी को देने से कतरा रहे हैं, उनसे ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि यदि इस चुनाव में भाजपा हार जाती तो सारा ठीकरा किसके सिर फूटता ??? ...मोदी के। बल्कि उन्हें निपटाने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता। इसीलिए ये श्रेय उनसे कोई चाह कर भी नहीं छीन सकता।

हमारे यहां लोकतंत्र की ताकत अद्भुत है। ये मधु दंडवते को भी चुनाव हरवा देती है और शहाबुद्दीन जेल में रहकर भी जीत जाते हैं। इसी लोकतंत्र की ताकत से मायावती उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बन सकीं। इसलिए इस ताकत में ऐब निकालने की बजाय जनता को, मतदाता को जागरूक करने पर जोर देना होगा।

नरेंद्र मोदी ने इस जीत से अपने और दिल्ली के बीच की एक बड़ी बाधा दूर कर ली है.... पर ये वो भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली अभी दूर है ... इस दूरी को वो किस तरह पार कर पाते हैं, अपने आप से कितना लड़ पाते हैं, देखना दिलचस्प होगा।

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