पाहन पूजै हरि मिलै...
जब भी बाहर कोई बड़ी आपदा आती है, मन भीतर चला जाता है...बहुत भीतर। शून्य में .... निर्वात में। उस निर्वात से भी फिर-फिर शब्द उठते हैं.... भाव उठते हैं फिर उसी निर्वात में वो गुम हो जाते हैं। तर्क आपस में सिर भिड़ाकर ख़ुद ही मान लेते हैं कि यह बेमतलब की सिर फुटव्वल है। फिर भी कुछ हिलोरें उठती हैं मन की दीवारों पर टकराती हैं, संवेदनाओं को सहलाती हैं, भावनाओं को कुरेदती हैं और हमारे अवचेतन को अंगुली पकड़कर खींच ले जाती हैं.. दूर ... बहुत दूर जहाँ ख़ामोशी है। हम चाहते हैं कि सारा शोर थम जाए। बस मौन हो। और कुछ देर के लिए तो वो भी नहीं।
कुछ लोग इस झंझावात पर ढक्कन लगाकर शांत बैठ जाते हैं... सोचते हैं कि टल गया... उन्हें तब पता चलेगा जब ये प्रेशर कूकर फटेगा। बहरहाल त्रासदी बहुत ही भयावह है और पीड़ा मर्मान्तक। पहाड़ों से उतरकर आने वाला ये आर्तनाद संवेदनाओं को चीरकर भीतर .... सीधे मर्म पर चोट पहुँचाता है। कैसी घनीभूत पीड़ा ..... आप सुनिए उन लोगों के आप्त स्वर जो खो आए हैं अपनों को। यहाँ जमीन पर इतने बड़े और आलीशान अस्पताल, कैसा उन्नत विज्ञान, पैसों का उजाला, अध्यात्म का आवेग, धर्म की आड़, मोक्ष की कामना ... पर ... पर वहाँ क्या हुआ?- 12
साल का बेटा बाप की गोद में दम तोड़ रहा है, 8 साल की बच्ची पहले ही दम तोड़ चुकी है, पत्नी आँख के सामने बह गई....। बच्चे को भी वहीं पत्थर के नीचे दबा देना पड़ा। और भी पता नहीं क्या-क्या दबा देना चाहा होगा... पर कोई ऐसा पत्थर तो मिले... -
एक भाई उसके सामने उसकी सगी बहनें भूख-प्यास से तड़पकर पागल हो गईं।- 20
दोस्त साथ गए थे। 19 बह गए। एक ही लौटा।-
पति अपनी पत्नी का हाथ थाम कर धर्मशाला की छत पर चढ़ रहा था, ताकि बच जाए। पत्नी तक पानी पहले पहुँच गया... वो बह गई। हाथ छूटा - साथ छूटा। ... पति जिंदा है... पर क्या सचमुच?सोचिए, अंदाजा लगाइए... प्रकृति ने तो पानी भी बहाया और पत्थर भी... इंसान के तो आँसू ही पथरा गए। हम कितनी भी दूर चले जाएँ, उस पीड़ा तक नहीं पहुँच पाएँगे। पर उससे अलिप्त भी नहीं रह सकते। इंसान हैं, रोबोट नहीं। ये सब क्यों हुआ... किसलिए हुआ... कोई जवाब नहीं। हमें कोई कारण मिल जाए तो हम मुक्त हो जाते हैं। कुछ ना मिले तो ईश्वर को ही दोष दे लेते हैं। पर यहाँ...। ईश्वर के दर पर ही मौत का यह तांडव।
सोचिए, अंदाजा लगाइए... प्रकृति ने तो पानी भी बहाया और पत्थर भी... इंसान के तो आँसू ही पथरा गए। हम कितनी भी दूर चले जाएँ, उस पीड़ा तक नहीं पहुँच पाएँगे
और फिर भी लोग एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं। एक दूसरे की जान ले लेना चाहते हैं... कारण कुछ भी हो। और जीवन का यही विरोधाभास परेशान कर देता है। दरअसल लोग तो बह गए। जिंदगियाँ भी बह गईं पर वो सब अब भी नहीं बहा जिसे विसर्जित करने के लिए हम दरअसल तीर्थस्थलों पर जाते हैं। वो अहं की चट्टान, वो लोभ की दीवार, वो लालच की इमारत वो स्वार्थ की अट्टालिकाएँ अगर इतनी बड़ी सुनामी में भी नहीं बह सकतीं तो फिर कैसे बहेंगी? वो मैल जो गंगा इतने सालों से धोना चाह रही थी, वो इस सैलाब में भी नहीं धुलेगा तो फिर कैसे धुलेगा?जान जानी है तो कहीं भी चली जाएगी। केदारनाथ के पहाड़ पर नहीं तो घर बैठे ही चली जाएगी। आलीशान अस्पताल और बड़े डॉक्टर अगर मौजूद भी हों तो क्या कर लेंगे? ... मान लिया। पर प्रभु तू है तो उसे भी तो बहा जिसे सचमुच बह जाना चाहिए!! वहाँ भी लोग पैसे लूट रहे हैं, लाशों के बदन से सोने की चेन खींच रहे हैं!! ये अज्ञान कब बहेगा प्रभु? स्वार्थ की जमीन पर मनमानी के बुलडोजर चलाकर लालच की इमारतें तो अब भी तन रही हैं...सच की पूनम पर अमावस की स्याही घनी हो रही है...ये अंधेरा कब मिटेगा प्रभु? उसे भी मिटा दो ...उसे भी बहा दो... हम सब बहा दें ... तब तबाही के इस मंजर से झाँकने वाली जिंदगी और भी ज्यादा ख़ूबसूरत होगी। यह भरोसा भी है कि इस मलबे के भीतर से भी निकलकर जिंदगी मुस्कराएगी। हर नए बच्चे की किलकारी मौत के स्वर को और मद्दा कर देगी, हर नई कविता, हर गीत पर इंसान की जीत का नाम लिखा होगा। हम रुकेंगे नहीं, थकेंगे नहीं, हारेंगे नहीं... पर ये मैल बह जाए, ये गंदला धुल जाए तो आने वाली सुबह सच में कितनी चमकीली होगी....मुझे बस कबीर याद आ रहे हैं -
पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार।