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सचिन की विदाई : क्या दाग धुल पाएंगे...

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हमें फॉलो करें सचिन तेंदुलकर
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जयदीप कर्णिक

तो वो 74 पर आउट हो गए... इसलिए कि वो भगवान नहीं इंसान ही हैं। उन्होंने भी खुद को कभी भगवान नहीं माना। ये तो कोने में पड़े पत्थर पर भी सिंदूर पोतकर उसे भगवान बना देने वाले हमारे समाज ने उन्हें भगवान बना दिया।

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PTI
वो समाज जिसे एक ऐसे भगवान की आवश्यकता हमेशा रहती है, जो उसकी तमाम अपेक्षाओं का बोझ ढो सके। पत्थर पर सिंदूर चढ़ाओ और सारी इच्छाओं और आकांक्षाओं का बोझ उस पर डाल दो। इसीलिए पत्थरों के बाहर इंसानों में भी हमने हमेशा से ही नायक खोजे।

अन्ना हजारे के परिदृश्य पर उभरते ही हमें लगा कि देश की जड़ों में घुस चुके भ्रष्टाचार और कुशासन की सड़ांध से मुक्ति दिलाने वाला महानायक हमें मिल गया है। सचिन की हालत तो 'गाइड' के उस देव आनंद की तरह हो गई जिसे गांव वालों ने साधु मान लिया और अब उसे बारिश करवाना ही है।

आज वैसे ही लोग बस सचिन से 100 रन करने की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन ये फिल्म नहीं, असल जिंदगी है। ऐसी घटनाओं के बाद ही तो हमें लगता है कि जो कुछ हो रहा है वो नकली नहीं है। कोई और है, जो स्क्रिप्ट लिख रहा है।

बहरहाल, सचिन के नायकत्व और उनके भगवान होने पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। लिखा तो उनकी विदाई पर भी खूब जा रहा है। ये भी कहा जा रहा है कि उनको दो साल पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था। अब अगर नियति में उनकी विदाई ऐसे ही तय थी तो ऐसे ही सही। महत्व इस बात का नहीं है।

क्रिकेट की बजाय पैसे से प्यार कर रही बीसीसीआई नंगी हो जाने के बाद भी कपड़े पहनने को तैयार नहीं थी। खूब कीचड़ उछला पर श्रीनिवासन कपड़े धोकर फिर आ गए
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सचिन एक अच्छे इंसान हैं और उनके व्यक्तित्व के बारे में भी काफी कुछ कहा-लिखा गया है। लिखा तो इस बात पर भी गया कि बीसीसीआई ने इसे एक 'मार्केटिंग हाइप' में बदल दिया। सचिन की विदाई को भी 'इवेंट' में तब्दील कर दिया। ये भी सही है- और बात यहां से शुरू होती है।

इस बात को दूसरे दृश्य से जोड़ते हैं। वो दृश्य जहां एक बार फिर क्रिकेट को लेकर पूरे देश में वो जुनून दिखा, जो आज से एक-डेढ़ दशक पहले दिखाई देता था। सड़कें सूनी हो जाती थीं, दफ्तर सूने और पान की दुकानों पर चल रहे टीवी पर जमकर भीड़। मेरे जैसे क्रिकेटप्रेमी के लिए ये उन दिनों में ही लौटने जैसा है, जब क्रिकेट खेला भी खूब और देखा भी खूब।

फिर अचानक ही क्रिकेट को लेकर वो दीवानगी आसमान से धरती पर आ गई। एकदम से बैरोमीटर नीचे आ गिरा। क्यों? मैंने जब पहली बार सुना कि क्रिकेट में मैच फिक्सिंग होती है- दक्षिण अफ्रीका की टीम को लेकर ये बात सामने आई थी और भारतीय खिलाड़ियों के नाम भी आए थे- मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। बहुत गहरा धक्का लगा था।

वो हम जो छुट्टी लेकर टीवी के सामने खून जलाते हैं, एक-एक रन, एक-एक विकेट और हर एक गेंद पर अपनी सांसें रोक लेते हैं वो सब क्या इसके लिए? विश्वास का बांध टूट गया और क्रिकेट के लिए दिल में बसा प्यार जैसे कहीं बह गया। अब लाख कोशिश के बाद भी दिल का जलाशय भर नहीं पाएगा। चंद लोगों की गलती एक खेल को कैसे ले डूबती है ये उसका बड़ा उदाहरण है।

सचिन की विदाई के शोर में एक और अच्छे क्रिकेटर अनिल कुंबले का वो व्याख्यान भी दब गया जिसमें उन्होंने बीसीसीआई पर क्रिकेट की बजाय पैसे को तवज्जो देने की बात खुलकर कही है
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बाद में वैसे भी फिक्सिंग की वो घटना अपवाद बनकर नहीं रह गई। ऐसे और किस्से सामने आते रहे। और अभी हाल ही के आईपीएल में तो उसका और भी घिनौना रूप नंगा होकर सामने आ गया। संजय जगदाले जैसे लोग इस्तीफा देकर अलग हो गए। क्रिकेट के महान खिलाड़ी इस तरह विरोध करने और अलग होने की बजाय, मुंह में पैसा जमाकर (दही जमाकर नहीं) चुप बैठ गए।

क्रिकेट की बजाय पैसे से प्यार कर रही बीसीसीआई नंगी हो जाने के बाद भी कपड़े पहनने को तैयार नहीं थी। खूब कीचड़ उछला पर श्रीनिवासन कपड़े धोकर फिर आ गए। वो ये भूल गए कि सिर्फ कपड़े धो लेने से दाग नहीं धुल जाते।

इस कीचड़ और दाग को बार-बार धोने की कोशिश के बाद भी साफ नहीं कर पाने से हो रही झुंझलाहट बीसीसीआई के दिग्गजों के चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी। तभी बीसीसीआई को सचिन की विदाई के रूप में ऐसा डिटर्जेंट नजर आया, जो शायद उनके दामन को थोड़ा और साफ कर दे और साथ ही वो पैसा भी मिले जिसकी अंतहीन भूख अब उनके लिए बीमारी में तब्दील हो चुकी है।

बीसीसीआई ने कोशिश की और फिर वो ही जुनून देखने को भी मिला। पर अगर इससे क्रिकेट के कर्णधारों को ये भ्रम है कि दाग धुल जाएंगे तो वो बड़ी गफलत में हैं। लोग सचिन से प्यार करते हैं और उन्होंने क्रिकेट में उन्हें भगवान का दर्जा दिया है इसीलिए लोगों ने इस अहम घड़ी में उन पर सारा प्यार उड़ेल दिया।

सचिन महान इसलिए नहीं हैं कि उन्होंने 100 शतक जमाए या 16 हजार से ज्यादा रन बनाए। उनका बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने अपने आचरण से क्रिकेट को 'जैंटलमैंस गेम' बनाए रखा। सचिन और राहुल द्रविड़ जैसे खिलाड़ियों की विदाई दरअसल उस युग की भी विदाई है, जहां क्रिकेट की सफेद पोशाक पर कोई दाग नहीं है और उसके रंगीन हो जाने पर भी चरित्र के उजले बने रहने का भरोसा है। नए युग में ये भरोसा खत्म हो गया है।

सचिन इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि वो क्रिकेट के उस युग से इस युग में आगमन के साक्षी रहे हैं। उन्होंने इस संक्रमण काल को करीब से देखा है। उन्होंने मूल्यों के पतन को करीब से देखा है। देखते तो वो अब भी रहेंगे लेकिन मैदान के बाहर से। उनके लिए एक तरह से ये अच्छा ही है कि वो इस कीचड़ धसान से दूर रहें।

क्रिकेट को पैसे की मशीन समझकर धन बटोरने वालों की सबसे बड़ी ताकत वो करोड़ों क्रिकेट प्रेमी हैं, जो आज सचिन के लिए दिल से दुआ कर रहे हैं, उन्हें भावभीनी विदाई दे रहे हैं। जिस क्रिकेट से सचिन ने बेइंतेहा मोहब्बत की वो ऐसा ही बना रहे और चाहने वालों को सचिन की ही तरह अच्छे खिलाड़ी मिलते रहें, इसके लिए ये जरूरी है कि क्रिकेट प्रेमी कर्णधारों तक ये संदेश पहुंचाएं।

सचिन की विदाई के शोर में एक और अच्छे क्रिकेटर अनिल कुंबले का वो व्याख्यान भी दब गया जिसमें उन्होंने बीसीसीआई पर क्रिकेट की बजाय पैसे को तवज्जो देने की बात खुलकर कही है। उम्मीद है कि सचिन की विदाई का शोर थमने के बाद कर्णधारों तक ये आवाजें और मुखर होकर पहुंचेंगी।

.................................सलाम और शुभकामना सचिन।

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