ख़ाली कैनवास पर नया तंत्र उकेरने को बेताब गण....
(26 जनवरी 2014 : विशेष संपादकीय)
अपनी मंज़िल, अपना मकाम ख़ोजती ये क्रांतियाँनैराश्य के तिमिर से उम्मीद की किरणें छाँटती ये क्रांतियाँमकड़जाल को तोड़ती और दिलों को जोड़ती ये क्रांतियाँहैं कफन को खींचकर ज़िंदगी को लौटती ये क्रांतियाँ होली महलों की जलाकर अपने हाथ तापती ये क्रांतियाँ अपने नए कैनवास पर नई तस्वीर खेंचती ये क्रांतियाँ क्रांति से ही शुरू और क्रांति की ओर दौड़ती ये क्रांतियाँ अब उमंगें परवान पर हैं और दुआएँ बुदबुदाने की बजाय चिल्लाने लगी हैं। अपनी ख़्वाहिश का हिंदुस्तान पा लेने के अरमान अब पहले से कहीं ज़्यादा बेताब हो चले हैं। वो हिंदुस्तान, जिसकी हसरत लिए हम 1857 से लेकर 1947 तक लड़ते, मरते और ख़ून बहाते रहे। वो हिंदुस्तान जिसकी इमारत को तामीर करने के लिए जलियाँवाला की ख़ून सनी मिट्टी, भगतसिंह की फाँसी की रस्सी, सुभाष बाबू के फौलाद से बनी ईंटें, तिलक के तप का गारा और गाँधी के संकल्प की बुनियाद, सब लग गए।...
पर पता नहीं क्यों वो हिंदुस्तान कभी मिला ही नहीं। मिला भी तो टुकड़ों में....। राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर ख़दबदाहट चलती रही...। इस उम्मीद में कि कुछ बदलेगा। एक हिंदुस्तान अंतरिक्ष को छू लेने का 'मंगलाचरण' कर रहा है तो दूसरा अब भी कूड़ेदान में पड़े बच्चियों के भ्रूण, कुपोषण से मरते बच्चों, ख़ाप पंचायतों के फतवों और पीने का पानी भी ना मिल पाने का शोक मना रहा है।
चमकीले 'इंडिया' और मटमैले 'भारत' के बीच का फासला इतना बड़ा है कि ना तो पूरा हिंदुस्तान मिलकर उत्सव ही मना पा रहा है और ना मातम। तरक्की की दौड़ इतनी अंधी और बेरहम निकली की उसने समतावाद के सपनों को चूर-चूर कर दिया
चमकीले 'इंडिया' और मटमैले 'भारत' के बीच का फासला इतना बड़ा है कि ना तो पूरा हिंदुस्तान मिलकर उत्सव ही मना पा रहा है और ना मातम। तरक्की की दौड़ इतनी अंधी और बेरहम निकली की उसने समतावाद के सपनों को चूर-चूर कर दिया और समाजवाद के नारों को एक गंदी गाली बना दिया। सैफई और मुजफ्फरनगर के बीच का विरोधाभास ना तो नया है और ना ही एक अपवाद बल्कि मुजफ्फरनगर की सिसकियाँ और सैफई की बेहया चमक-दमक तो आज के हिंदुस्तान की सच्चाई है। हिंदुस्तान के हर शहर की पॉश कॉलोनी में सैफई हर रोज़ सच होता है और पिछवाड़े की झुग्गी में मुजफ्फरनगर रोज़ रोता है। सैफई से मुजफ्फरनगर की इस दूरी को पाटे बगैर हमारे ख़्वाबों का हिंदुस्तान सच नहीं हो सकता। बहुत से लोग इस बात को समझते भी हैं और इसीलिए वो बेचैन भी हैं इस बदलाव के लिए। दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जानते हैं कि इस दूरी को कम नहीं करना उनके लिए ही घातक होगा। दरअसल महल से झोपड़ी के बीच खाई जितनी बड़ी हो रही है, झोपड़ी के लोगों के हाथ महल के गिरेबाँ पर पहुँचने की गति भी उतनी ही तेज हो रही है। अगर महल यों ही अय्याशी की रोशनी से चमकते रहे और झोपड़ी में अंधेरा रहा तो वो दिन दूर नहीं जब महलों को जलाकर झोपड़ियों को रोशन कर लिया जाएगा।
आज़ादी को ऐसी कामधेनु मान लेना जिसका दूध जितना मर्जी दुहो, कभी ख़त्म नहीं होगा, इस सोच ने बेचारी आज़ादी को ही मरियल और लोकतंत्र को बीमार बना दिया। इस बीमारी से निजात के लिए भी हमें अब ऐसी दवाई की तलाश है, जिसे हम रात को खाएँ और सुबह तंदुरुस्त हो जाएं
आज़ादी को ऐसी कामधेनु मान लेना जिसका दूध जितना मर्जी दुहो, कभी ख़त्म नहीं होगा, इस सोच ने बेचारी आज़ादी को ही मरियल और लोकतंत्र को बीमार बना दिया। इस बीमारी से निजात के लिए भी हमें अब ऐसी दवाई की तलाश है, जिसे हम रात को खाएँ और सुबह एकदम तंदुरुस्त हो जाएँ। हम ना उस जाँच के लिए तैयार हैं, जो बीमारी का ठीक-ठीक पता बता दे और ना उस संभावित सर्जरी के लिए तैयार हैं जिसके बगैर इलाज संभव नहीं है। हम चाहते हैं कि हम मीठा भी खाते रहें, इंसुलिन भी ना लें और डायबिटीज ठीक हो जाए।इस मुल्क की नई तस्वीर को उकेरने की बेताबी दरअसल पिछले डेढ़-दो दशक से उपजी निराशा, इंतजार और हताशा का परिणाम है। नित नए घोटाले के दागों ने इस तस्वीर को गंदला किया और बेचैनी को बढ़ा दिया। इसीलिए 8 दिसंबर 2013 को देश ने दिल्ली के विधानसभा चुनावों में उस बेताबी को उभरते और आकार लेते देखा। अन्ना के लोकपाल आंदोलन ने उस बेताबी को आवाज दी थी और दिल्ली विधानसभा ने मंच। हमें लाख चिढ़ हो अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी से। हमें नफरत हो उनके नुमाइंदों से और डर हो उनके भविष्य से। लेकिन, ये तो मानना ही पड़ेगा कि दिल्ली की इस जीत ने देश का नया राजनीतिक एजेंडा तय किया है। वरना क्या कारण है कि दिल्ली में केवल 32 प्रतिशत वोट लाने वाले दल की देखादेखी देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों के सिर पर केसरिया और सफेद टोपी आ गई? वो अपने सादगी पसंद मुख्यमंत्रियों की सूची जारी करने लगे?
लोगों ने केसरिया टोपी और सादगी को वोट नहीं दिया है उन्होंने दोनों बड़े दलों से उकताकर अपने राजनीतिक विकल्प को आवाज़ दी है। ये दरअसल जनता का 'नोटा' है। ये वोट बैंक को ठेंगा है। ये वोट को जागीर समझने वालों के मुँह पर तमाचा है
ये लोग अब भी प्रतीकों में खोए हैं और ये हास्यास्पद है। लोगों ने केसरिया टोपी और सादगी को वोट नहीं दिया है उन्होंने दोनों बड़े दलों से उकताकर अपने राजनीतिक विकल्प को आवाज़ दी है। ये दरअसल जनता का 'नोटा' है। ये वोट बैंक को ठेंगा है। ये वोट को जागीर समझने वालों के मुँह पर तमाचा है। अचानक ऐसा क्या हुआ कि हाशिए पर बैठे लोग और कई बड़े नाम एकदम राजनीति के इस समर में कूद पड़े? दरअसल ये वो लोग हैं जो हिंदुस्तान की तस्वीर अपने ढंग से बनाना चाहते हैं। उसके लिए खाली कैनवास चाहिए होता है। दोनों बड़े दल अपने कैनवास को अपने-अपने ढंग से रंग चुके हैं।
कांग्रेस और भाजपा लाख चाहे पर वो अपने कैनवास को खाली नहीं कर सकतीं, ये स्लेट नहीं है जिससे आप पुराना सब मिटा दो- चाहे गुजरात हो या 1984 या कुछ और। ....... तो लोगों को लगा कि ये नया कैनवास है जिसे वो अपने हिसाब से रंगना चाहते हैं
कांग्रेस और भाजपा लाख चाहे पर वो अपने कैनवास को खाली नहीं कर सकतीं, ये स्लेट नहीं है जिससे आप पुराना सब मिटा दो- चाहे गुजरात हो या 1984 या कुछ और। ....... तो लोगों को लगा कि ये नया कैनवास है जिसे वो अपने हिसाब से रंगना चाहते हैं। ... रंग सकते भी हैं पर उन्हें दो बातों का ध्यान रखना पड़ेगा- एक तो ये कि आप भी लाख चाहें तो भी इस कैनवास से हिंदुस्तान के इतिहास, उसकी हजारों साल पुरानी संस्कृति और उसके ताने-बाने की पृष्ठभूमि और छवि को मिटा नहीं सकते। तस्वीर बनाते वक्त ये ध्यान रखना होगा। दूसरी बात ये कि तस्वीर बहुत सावधानी से बनानी होगी। बहुत से लोग जो हाथ में कूची और रंग लेकर आएँगे वो ज़रूरी नहीं कि इसे बनाने ही आए हों, इसे बिगाड़ने वाले भी कई होंगे।दोनों ही मुख्य दल अगर ये समझ लें कि जनता ने वोट टोपियों को नहीं दिया है... आपकी नाकामी और आपके प्रति नाराज़ी को समझिए, जनता फिर आपके साथ खड़ी होगी।.... और सुन लो आम आदमी की रहनुमाई का दावा करने वालों- जो तुमने तस्वीर बिगाड़ी तो फिर कोई खड़ा हो जाएगा क्रांति का नया कैनवास लिए.....। आप और हम सब उम्मीद करें कि एक क्रांति का अंत केवल दूसरी क्रांति का इंतजार ना बन जाए और हम सब नए भारत की तस्वीर मुकम्मल कर पाएँ। आप सभी को गणतंत्र दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ।