लखनऊ। माह-ए-रमजान में ‘उठो सोने वाले सेहरी का वक्त है उठो अल्लाह के लिए अपनी मगफिरत के लिए...’ जैसे पुरतरन्नुम गीत गाकर लोगों को सेहरी के लिए जगाने वाले फेरीवालों की सदाएं वक्त के साथ बेनूर होते समाजी दस्तूर के साथ अब मद्धिम पड़ती जा रही है।
पुरानी तहजीब की पहचान मानी-जानी वाली सेहरी में जगाने की यह परंपरा दिलों और हाथों की तंगी की वजह से दम तोड़ती नजर आ रही है। फेरी आपसी संबंधों को मजबूत करता एक समाजी बंधन है, लेकिन सामाजिक बिखराव के साथ इसकी गांठें ढीली पड़ती जा रही हैं।
लखनऊ के शहरकाजी मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने फेरी की परंपरा के बारे में बताया कि पहले के जमाने में खासकर फकीर बिरादरी के लोग सेहरी के लिए जगाने के काम जैसे बड़े सवाब के काम को बेहद मुस्तैदी और ईमानदारी से करते थे। बदले में उन्हें ईद में इनाम और बख्शीश मिलती थी। इसमें अमीर द्वारा गरीब की मदद का जज्बा भी छुपा रहता था।
इस तरह फेरी की रवायत हमारे समाज के ताने-बाने को मजबूत करती थी लेकिन अब मोबाइल फोन, अलार्म घड़ी और लाउडस्पीकर ने फेरी की परंपरा को जहनी तौर पर गौण कर दिया है।