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रमजान के रंग, बच्चों के संग...

बच्चों का पहला रोजा

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- दीपक असीम
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रमजान का चांद दिखते ही मुस्लिम इलाकों की मानो हवा बदल जाती है। चारों तरफ एक अलग ही उल्लास होता है। किराने की दुकानों पर 'तलावन' खरीदने के लिए भीड़ टूट पड़ती है। तलावन यानी तल कर खाई जानी वाली चीजें - पापड़, कुड़लाई, रंग-बिरंगी फिंगर, आलू की चिप्स वगैरह। हालांकि इसकी खरीदारी हफ्ते भर पहले से होती रहती है, मगर फिर भी बहुत कुछ है जो खरीदी से बचा रह जाता है।

तलावन की चीजों से ही तो इफ्तारी की प्लेट भरी-भरी सी लगती है। मगर इफ्तारी तो शाम को होगी, रमजान का चांद दिखते ही पहली फिक्र सेहरी की होती है। अलार्म में चाबी भरी जाती है, घंटी चैक की जाती है। वैसे आजकल ये काम मोबाइल फोन से होने लगा है।

बच्चों में गजब का उत्साह होता है। साल भर मस्जिद नहीं जाने वाले और एक भी नमाज नहीं पढ़ने वाले बच्चे भी चाहते हैं कि रोजा रखने के लिए उन्हें उठाया जाए। वे भी सेहरी करेंगे और रोजा रखेंगे।

सेहरी के लिए दूध और पराठे से बेहतर कुछ नहीं होता। दूध पानी की कमी नहीं होने देता। पराठा पेट में देर तक पड़ा रहता है। हां दूसरी चीजें भी होती हैं, मगर सुबह-सुबह गरम पराठा हो तो सेहरी के खाने में जान आ जाती है। सुबह चार बजे से ही मुस्लिम इलाके जाग जाते हैं।

जो लोग रोजे नहीं रखते, वे भी सुबह की खड़बड़ से उठ जाते हैं और बाहर की बत्ती जला कर फिर सो जाते हैं। रोजा नहीं रखा तो क्या हुआ। दूसरों को क्यों बताएं कि हमने रोजा नहीं रखा है। बत्ती जलाई है, तो किसी को धोखा थोड़े ही दे रहे हैं। किसी नमाजी का पैर गंदगी और गड्ढे में पड़ जाए तो? बत्ती जलाने में क्या हर्ज है? मगर जिस घर में वाकई सेहरी होती है, उस घर की रौनक ही और रहती है। पराठे सिंकने की खुशबू सुबह की हवा में तैरती है। ऐसे घर बत्ती जलाकर सोने वाले घरों से अलग ही पहचान में आते हैं।

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बच्चों ने 2 तारीख को पहला रोजा रखा है। सेहरी के समय से ही इफ्तार की फरमाइशें शुरू हो गई हैं। मांएं दिन-दोपहर से इफ्तार का इंतजाम कर रही हैं। घरों-घर पॉलिथीन की काली थैलियां आ रही हैं। कुकर की सीटियां बज रही हैं। बिरयानी के चावल बीने जा रहे हैं। थके-मांदे बच्चे स्कूल से आए हैं।

कहते हैं- 'रोजा बिलकुल नहीं लग रहा'। 'रोजा लगना' एक खास वाक्य है। इसका मतलब है रोजे की तकलीफ होना। जिस दिन भूख-प्यास ज्यादा लगे उस दिन कहा जाता है कि आज रोजा लग रहा है। जो दिन आसानी से गुजरे उस दिन कहते हैं कि रोजा नहीं लग रहा। तो मांएं घरों में पूछ रही हैं कि बच्चों रोजा तो नहीं लग रहा।

बच्चे जानते हैं कि यदि हां कहा तो कल रोजा नहीं रखने दिया जाएगा। लिहाजा वे कहते हैं बिलकुल नहीं लग रहा। पर मांएं उनकी उतरी हुई सूरतों से अंदाजा लगा सकती हैं।

कुछ बच्चों का उत्साह कुछ दिन रहता है। फिर उन्हें जगाओ भी तो वे नहीं जागते। यही बच्चे जब हाथ बढ़ा-बढ़ा कर इफ्तारी खाते हैं, तो मांओं की डांट भी सुनते हैं। मां कहती है - अरे रोजदारों के मुंह तो कुछ लगने दो, तुम सब तो दिनभर से चर रहे हो... इन बच्चों के मारे कितना ही लाओ, सब कम पड़ जाता है। जिन बच्चों को रोजा रखने पर बहुत प्यार से खिलाया जा रहा था, चौथे ही दिन वे बच्चे इफ्तारी में डांट-डपट भी खाने लगते हैं।

रमजान केवल धार्मिक ही नहीं सांस्कृतिक उत्सव भी है। मुसलमानों का जीना एक महीने के लिए बिलकुल बदल जाता है। रमजान के बहुत सारे रंग हैं।

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