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जलवायु परिवर्तन का भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव

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संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यूएनइपी) की 2009 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछले 100 वर्षों में विश्व के तापमान में 0.74 सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई है। इस शताब्दी का पहला दशक (2000-2009) अब तक का सबसे उष्ण दशक रहा है।


वर्ष 2010 में भारत के विभिन्न राज्यों जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों तथा राजधानी दिल्ली में मार्च के महीने में 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकार्ड किया गया, जबकि महाराष्ट्र राज्य के अनेक जिलों (जलगांव, नासिक, शोलापुर आदि) में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में 43 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकार्ड किया गया। हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में मार्च के महीने में औसत से 10 डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान रिकार्ड किया गया जिससे पिछले 109 वर्ष पुराना रिकार्ड टूट गया। 
 
उक्त आंकड़ों से यह साबित होता है कि हरित गृह प्रभाव के कारण जलवायु परिवर्तन का दौर आरम्भ हो चुका है। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जलवायु परिवर्तन के निसंदेह गंभीर परिणाम होंगे। देश में जलवायु परिवर्तन के विभिन्न क्षेत्रों पर संभावित दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं।
 
पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण बंगाल की खाड़ी में जल स्तर में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरुप जैव-विविधता सम्पन्न मैन्ग्रुव पारितन्त्र (मैन्ग्रोव इकोसिस्टम) नष्ट हो जाएंगे। जलस्तर में वृद्धि के कारण अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह भी जल में डूब जाएंगे परिणामस्वरुप जैव-विविधता की वृहद पैमाने पर क्षति होगी क्योंकि ये द्वीप समूह जैव-विविधता सम्पन्न हैं तथा बहुत से पौधों तथा जन्तुओं की प्रजातियां यहां के लिए स्थानिक (वह प्रजातियां जो देश के किसी अन्य हिस्से में नहीं पायी जाती हैं) हैं। 
 
सागर जल की तपन के कारण मूंगे का द्वीप लक्षद्वीप मूंगा विरंजन (कोरल ब्लीचिंग) का शिकार होकर नष्ट हो जाएगा। बाद में समुद्री जलस्तर बढ़ने से यह द्वीप पूरी तरह से डूबकर समाप्त हो जाएगा। वैश्विक तपन से हिमालय की वनस्पतियां विशेष रूप से प्रभावित होगी जिससे जैव-विविधता क्षय का खतरा बढ़ेगा।
 
जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों, खरपतवारों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या बढ़ेगी जिनके नियन्त्रण के लिए वृहद पैमाने पर रासायनिक जीवनाशकों (पेस्टिसाइड्स) के प्रयोग के कारण पर्यावरण प्रदूषित होगा। कीटनाशकों तथा शाकनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से गैर-लक्षित उपयोगी कीट, फसलों की जंगली प्रजातियां तथा पौधों की अन्य उपयोगी प्रजातियां भी प्रभावित होंगी, जिससे जैव-विविधता का क्षरण होगा। 
 
रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण मृदा की सूक्ष्मजीवी जैव-विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की संरचना नष्ट होगी जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलेगा। परिणामस्वरूप बंजर भूमि के क्षेत्रफल में इजाफा होगा। रासायनिक कीटनाशकों तथा उर्वरकों से जल प्रदूषित होगा। सतही तथा भूमिगत जल के प्रदूषण का गंभीर खतरा होगा। सुपोषण (यूट्रोफिकेशन) से प्रभावित नमभूमियां (जो जैव-विविधता की संवाहक होती हैं) स्थलीय पारितन्त्र में परिवर्तित हो जाएंगी जिससे जैव-विविधता का क्षय होगा।
 
जलवायु की तपन के परिणामस्वरुप वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी फलस्वरूप वन क्षेत्रफल में गिरावट के कारण पारिस्थितिक असंतुलन का गंभीर खतरा पैदा होगा। वनों के क्षरण के परिणामस्वरुप जैव-विविधता क्षय की दर में भी अभूतपूर्व वृद्धि होगी।

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