अपने पर्यावरण की रक्षा हमें ही करना होगी अन्यथा ग्लोबल वॉर्मिंग हमारी पीढ़ियों को अपनी आग में हर दिन झुलसाएगी और वे आपको पल-पल कोसती रहेंगी। सोचिए! इसका गुनहगार कौन है?
• पेड़ काटे गए, हमने आपसी चर्चा में कहा कि हमें क्या?
• बड़े-बड़े पहाड़ छिल दिए गए, हमने सोचा हम क्या कर सकते हैं?
• नदियों तक का अपहरण हो गया (10,210 नदियां थीं देश में)। हमने कहा- सरकार जाने, हमें क्या करना?
• नदियों में कारखानों के घातक विषाक्त कचरे को डाला जाता रहा, हम चुपचाप वही पानी पीकर बीमारियों को स्वीकारते रहे।
• पूरे देश के जंगलों को माफियाओं ने किसी न किसी बहाने से लगातार चारों तरफ से साफ करना शुरू कर दिया, मालूम होते हुए भी हम यही सोचते रहे कि हम क्या कर सकते हैं?
• कभी घर बनाने के बहाने, कभी कारखानों के नाम पर, कभी सड़क निर्माण की आड़ में, तो कभी विकास के किसी दूसरे आकर्षक बहाने से हम जीवन देने वाले बड़े-बड़े असंख्य पेड़ों का निर्मम विनाश अविराम करते ही जा रहे हैं।
रामायण काल में राक्षस होते हुए भी महाबली रावण ने प्रजा के हितार्थ खूब पेड़ लगवाए थे, वाटिकाएं विकसित करवाई थीं, पर हम तो उजाड़ने में आनंदित होने वाले सुसभ्य मनुष्य हैं।
• वनों के विनाश से लाखों जंगली जानवर बेघर होकर मौत को मजबूरन गले लगाने के लिए खूंखार शिकारियों की जद में आ गए, पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि हमारे घर और हमारी जिन्दगी सुरक्षित थे।
• पहाड़ों, बीहड़ जंगलों और दूरदराज के क्षेत्रों में अपनी बीट के साथ फलों और अन्य किस्म के पेड़ों के बीज रोपने वाले मूक किसान यानी करोड़ों पक्षी बेघर हुए और दर-ब-दर होकर बेमौत मर गए, हमें कोई फर्क नहीं पड़ा।
• कई जंगली जानवरों, पक्षियों और वनस्पतियों की प्रजातियां संपूर्ण रूप से लुप्तप्राय होने की कगार पर पहुंच गईं। हमने सोचा- 'जो दुनिया में आया है, सो एक दिन जाएगा ही', यह सनातन सत्य है। इस तरह देश की विश्वप्रसिद्ध जैवविविधता (बायोडाइवर्सिटी) का नाश होता रहा, हम ताली कूटने वाले तमाशबीन बने रहे।
• खाद, कीटनाशक एवं यंत्र बनाने वाले विदेशी निर्माताओं और व्यापारियों ने गाय, बैल और गोबर को हमारे खेतों से षड्यंत्रपूर्वक और परोक्षत: बलपूर्वक बाहर कर दिया और हम उनकी चिकनी-चुपड़ी तथा मीठी-मीठी बातों के जाल में ऐसे उलझे कि हमारी जमीनें बंजर हो गईं, किसान आत्महत्या करने लगे, गाय खेती की सौतन हो गई, बैल भार हो गए, परिश्रम बकवास होकर आराम में बदल गया। हमारी पारंपरिक आत्मनिर्भर वैज्ञानिक खेती परावलंबी हो गई। बीज बदल गए, देसी फसलें विदेशी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली फसलों में बदल गईं, सहारा देने की बजाय बैंकों के कर्ज ने किसानों के मनोबल को आत्मघाती विष दे दिया। हमने दुष्चक्र से निकलने की कोशिशें नहीं कीं बल्कि नियति मानकर उसमें फंसते ही चले गए।
• आज से लगभग 50 साल पहले तक 25 से 35 फीट खोदने पर ही कुएं पानी देने लगते थे, फिर 25 साल पहले पानी 100 से 150 फीट गहराई में चला गया, हमने भूजल भंडार की महत्ता नहीं समझी और अब पानी 300 से 500 फीट नीचे जा चुका है। परंतु हम भूजल को सिर्फ और सिर्फ उलीचने में ही विश्वास करते हैं, भू-भंडार भरने वाले आंगनों और सड़कों के किनारों पर हमने इंटरलॉकिंग टाइल्स लगा डाली ताकि वर्षा जल की एक बूंद भी धरती में न समा सके। 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' शायद इसी को कहते हैं।
• तुलनात्मक रूप से ठंडी और इकोफ्रेंडली डामर की सड़कों को वातावरण की गरमाहट को सोखने वाली सीमेंट-कांक्रीट की रोड्स ने हजम कर डाला। हमने अपने गली-मोहल्लों में सीमेंट- कांक्रीट की सड़कों के निर्माण हेतु अपनी जेब से पैसा देकर जनभागीदारी का अपना फर्ज निभाया और इस तरह स्वयं आगे आकर ग्लोबल वॉर्मिंग का हार्दिक स्वागत किया। हम आत्मघाती मूर्खता के मामले में कालिदासजी के भी परदादा निकले।
• यह जानते हुए कि दुनिया में पीने और नहाने तथा खाना पकाने के योग्य पानी केवल और केवल 1 प्रतिशत से भी कम है, परंतु हम अपने आंगन और गाड़ियों को धोते समय बिन पैसे के इस बेहद अनमोल पानी को पैसे की तरह अंधाधुंध बहाते रहते हैं। अपनी जिंदगी को मौत के हवाले करने वाली हमारी दरियादिली और बेताबी का जवाब नहीं।
• कुएं, बावड़ियां और नाले माफियाओं की जमीन हथियाने की लालच के शिकार होकर लुप्त हो गए, हम घरों में दुबककर बैठ गए।
• तालाबों और जलाशयों पर कॉलोनियां काट दी गईं, हमने उन घरों में नौका विहार-सा आनंद भोगा।
• अन्न देने के अलावा भूजल का भंडार भरने वाले खेतों की जमीनों को लालच देकर खरीदा गया, कॉलोनियां काटी गईं, भ्रष्टों और कालाबाजारियों ने भी जमीनों को बेनामी की आड़ में बेखौफ खरीदा, कारखाने खोले गए, ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए जिम्मेदार सीमेंट-कांक्रीट के महाजंगल खड़े किए गए। फॉर्म हाउसेस के नाम पर धरती माता पर सीमेंट का लेप कर दिया गया ताकि किसी भी हालत में जमीन के भीतर पानी की एक बूंद भी न पहुंच सके। भूजल बढ़ाने के सारे प्राकृतिक रास्तों को हमारी मूर्खता या लालच ने बलपूर्वक बंद या अवरुद्ध कर दिया। आखिर क्यों कुल्हाड़ियों की धार पर हम अपने पैर मार रहे हैं?
• इतिहास उठाकर अच्छे से देख लीजिए। अपने ही विनाश की हमारी ऐसी उतावली न तो कंस की हरकतों में मिलेगी और न ही रावण की करतूतों में उसे खोज पाएंगे। सच है कि हम भारतीय आत्मघात में भी सबसे आगे हैं।
संभावनाएं कभी समाप्त नहीं होती हैं-
• अब भी वक्त है, देश का हर नागरिक जितनी जल्दी हो सके, लंबी उम्र वाला कम से कम एक फलदार या अन्य देसी पेड़ लगाए, 3 से 4 साल तक उसकी परवरिश करेंं।
• पक्षियों के लिए घरों पर और सार्वजनिक स्थानों पर दाने-पानी की व्यवस्था की जाए।
• सड़कों के दोनों तरफ घनी छाया वाले फलदार पेड़ लगाएं जाएं।
• गौवंश आधारित जैविक खेती को सार्वकालिक और सार्वभौमिक मानते हुए उसको पूरे देश में अपनाया जाए। किसानों की मेहनत को सम्मानजनक प्रतिसाद मिले।
• हर सरकारी और निजी घर या कार्यालय में वर्षा जल संग्रहण (रेन वॉटर हार्वेस्टिंग) अनिवार्य किया जाए।
• कोल्ड ड्रिंक के कारखाने तुरंत बंद किए जाएं ताकि देश के सभी नागरिकों को कम से कम पीने का पानी तो मिल सके।
• गैरसरकारी पर्यावरण शास्त्रियों की जोरदार अनुशंसा पर ही इंटरलॉकिंग टाइल्स का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित किया जाए।
• राजमार्गों के दोनों किनारों पर हर आधा किलोमीटर पर सोकपिट बनाए जाएं ताकि वर्षाजल भूजल के रूप में आसानी से संग्रहीत हो सके।
• कागज का अंधाधुंध उपयोग बंद किया जाए।
• खेतों और जंगलों की जमीन की बिक्री के लिए पर्यावरण-संरक्षक नीति-नियम बनाएं जाएं।
• केंद्र सरकार एक अभूतपूर्व निर्णय लेगी तो बेघरों को आवास मिलने की दिक्कतें कम हो जाएंगी, अनावश्यक रूप से सीमेंट-कांक्रीट के नए-नए जंगल खड़े नहीं होंगे, खेती की जमीन खेती के लिए ही काम आएगी। इस निर्णय के तहत देशभर में किसी भी दंपति को दो से अधिक रहवासी घर अथवा फ्लैट (फॉर्म हाउस सहित) या प्लॉट का स्वामित्व रखने का अधिकार किसी भी हालत में नहीं रहेगा।
• सार्वजनिक बगीचों में सीमेंट-कांक्रीट के मंदिर बनाने की बजाय पूजनीय वृक्षों का ही रोपण करने के लिए सफलतापूर्वक प्रेरित किया जाए।
• पतले पॉलिथीन का उपयोग प्रतिबंधित किया जाए।