पूरे विश्व में समान रूप से मनाया जाने वाला उत्सव कहें, दिवस कहें या फिर पुण्यतिथि... वर्तमान परिस्थिति के अनुसार मनुष्य ने पर्यावरण का जो हाल किया है उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि साल में एक दिन पर्यावरण दिवस मनाने और पौधे लगाने से, प्रकृति के प्रति किए गए मनुष्य के पाप कम नहीं हो सकते। बल्कि प्रकृति के स्वरूप को विकृत करने के पश्चाताप के रूप में हमें हर दिन हर समय पर्यावरण के प्रति संरक्षण की भावना को अपने जीवन में उतारना होगा अन्यथा इसके परिणाम भी हम बगैर प्रकृति को कोसे, भुगतने को तैयार रहें।
माना कि विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिए कदम उठाए जा रहे हैं लेकिन इस पर हमें, समाज को और पूरे विश्व को चिंतन करने की आवश्यकता है कि ईश्वर ने हमें जो उपहार प्रकृति के रूप में दिया था, क्या हम उसे उसके मूल स्वरूप में बरकरार रख पाए।
अपने स्वार्थ साधने के लिए हमने कितनी बार इसके स्वरूप को विकृत किया। यही प्रकृति हमारी जीवनदायिनी प्राथमिकता थी जिसे हमने अन्यान्य स्वार्थ के लिए नजरअंदाज कर दिया और वर्तमान में इसके परिणाम भी भुगत रहे हैं। आइए, एक नजर डालते हैं हमारे स्वार्थ निहित कृत्यों पर ....
1. वृक्षों की कटाई और वायु प्रदूषण : हमने अपने जीवन को आरामदायक बनाने के लिए वर्षा होने में सहायक, हवादार, छायादार और हरे-भरे वृक्षों की कटाई कर डाली। जंगल जला डाले। नतीजा है अनियमित वर्षा और तपती धरती के रूप में हमारे सामने।
हरे-भरे जंगलों को इंडस्ट्री में तब्दील कर हम स्वच्छंद प्राणवायु लेने के भी हकदार नहीं रहे और सांस लेने के लिए भी प्रदूषित वायु और उससे होने वाली तमाम तरह की सांस संबंधी बीमारियां हमारी नियति हो गईं। यही नहीं, मृदा अपरदन भी प्रभावित हुआ और मिट्टी का कटान पर फिसलना, चट्टानों का फिसलना जैसी आपदाएं सामने आईं।
2. जल प्रदूषण : बचपन से ही 'जल ही जीवन है' की शिक्षा पाकर भी हम जल का महत्व समझने में पिछड़ गए और प्रदूषण के मामले में इतने आगे निकल गए कि गंगा जैसी शुद्ध और पवित्र नदी को भी प्रदूषित करने से बाज नहीं आए जिसकी सफाई आज भारत सरकार के लिए भी बड़ा मुद्दा है।
कभी स्वच्छता के नाम पर तो कभी धर्म और मान्यताओं के नाम पर हम जल को अतना प्रदूषित कर गए, कि उसे पुन: स्वच्छ करना ही हमारे बस की बात न रही। पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है, फिर भी करीब 0.3 फीसदी जल ही पीने योग्य है। विभिन्न उद्योगों और मावन बस्तियों के कचरे ने जल को इतना प्रदूषित कर दिया है कि पीने के करीब 0.3 फीसदी जल में से मात्र करीब 30 फीसदी जल ही वास्तव में पीने के लायक रह गया है। निरंत बढ़ती जनसंख्या, पशु-संख्या, ओद्योगीकरण, जल-स्त्रोतों के दुरुपयोग, वर्षा में कमी आदि कारणों से जल प्रदूषण ने उग्र रूप धारण कर लिया और नदियों एवं अन्य जल-स्त्रोतों में कारखानों से निष्कासित रासायनिक पदार्थ व गंदा पानी मिल जाने से वह प्रदूषित हुआ।
3. ध्वनि प्रदूषण : शहरों में वाहनों के बढ़ते ट्रैफिक और घरों में इलेक्ट्रॉनिक सामान और समारोह में बजने वाले बाजे और लाउडस्पीकर्स की कृत्रिम ध्वनियों से हमने न केवल प्रकृति के मधुर कलरव को खो दिया है बल्कि अपनी कर्णशक्ति की अक्षमता और मानसिक विकारों के साथ ही नष्ट होती प्रकृति के शोर को भी अनदेखा कर दिया है।
आज ध्वनि प्रदूषण कई प्रकार की मानसिक और शारीरिक विकृतियों का कारण है जिसमें नींद न आना, चिड़चिड़ाहट, सिरदर्द एवं अन्य विकृतियां प्रमुख हैं। इस प्रदूषण से मनुष्य या प्रकृति ही नहीं, बल्कि धरती के अन्य जीव-जंतु भी प्रभावित हैं।
4. भूमि प्रदूषण : वनों का विनाश, खदानें, भू-क्षरण और कीटनाशक दवाओं के अत्यधिक उपयोग से हमने भूमि की उर्वर क्षमता बढ़ाई नहीं बल्कि उसे प्रदूषित किया है। इनके कारण भूमि को लाभ पहुंचाने वाले मेंढक और केंचुए जैसे जीवों को नष्ट कर हमने फसलों को नष्ट करने वाले छोटे जीवों को पनपने की राह आसान की है।
कृषि तथा अन्य कार्यों में कीटनाशकों के प्रयोग की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अधिकांश कीटनाशकों को विषैला घोषित किया है, बावजूद इसके हम इनका प्रयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं।