Indian Mythological Stories
फादर्स डे भले ही वर्तमान में अस्तित्व में आया हो, लेकिन पिता और संतान का संबंध और उसके विभिन्न स्वरूपों का वर्णन हमारे शास्त्रों में सदियों से निहित है। फादर्स डे यानि पितृ दिवस, पिता के प्रति प्रेम, आदर और कई अनन्य भावों को प्रकट करता है। पिता-पुत्र के संबंधों को उजागर करते हमारे पुराण हमें कई तरह की शिक्षा प्रदान करते हैं। यहां आपके लिए प्रस्तुत है कुछ पौराणिक पिता-पुत्र से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारियां...
1. महाभारत में पितृ भक्ति : पितृ भक्ति का एक विलक्षण उदाहरण महाभारत में देवव्रत के पात्र के रूप में मिलता है। हस्तिनापुर नरेश शांतनु का पराक्रमी एवं विद्वान पुत्र देवव्रत उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी था, लेकिन एक दिन शांतनु की भेंट निषाद कन्या सत्यवती से हुई और वे उस पर मोहित हो गए। उन्होंने सत्यवती के पिता से मिलकर उसका हाथ मांगा। पिता ने शर्त रखी कि मेरी पुत्री से होने वाले पुत्र को राजसिंहासन का उत्तराधिकारी बनाएं, तो ही मैं इस विवाह की अनुमति दे सकता हूं। शांतनु देवव्रत के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकते थे। वे भारी हृदय से लौट आए लेकिन सत्यवती के वियोग में व्याकुल रहने लगे। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। जब देवव्रत को पिता के दुख का कारण पता चला, तो वह सत्यवती के पिता से मिलने जा पहुंचा और उन्हें आश्वस्त किया कि शांतनु के बाद सत्यवती का पुत्र ही सम्राट बनेगा।
निषाद ने कहा कि आप तो अपना दावा त्याग रहे हैं लेकिन भविष्य में आपकी संतानें सत्यवती की संतान के लिए परेशानी खड़ी नहीं करेंगी, इसका क्या भरोसा! तब देवव्रत ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी और उसने वहीं प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। इस पर निषाद सत्यवती का हाथ शांतनु को देने के लिए राजी हो गए। जब शांतनु को अपने पुत्र की प्रतिज्ञा का पता चला, तो उन्होंने उसे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया और कहा कि अपनी प्रतिज्ञा के कारण अब तुम भीष्म के नाम से जाने जाओगे।
2 राम-दशरथ की पितृ-भक्ति : अयोध्या के राजसिंहासन के सर्वथा सुयोग्य उत्तराधिकारी थे भगवान श्रीराम। सम्राट के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते यह उनका अधिकार भी बनता था मगर पिता की आज्ञा उनके लिए सारे राजसी सुखों से कहीं बढ़कर थी। अतः उनकी आज्ञा जानते ही राम बिना किसी प्रश्न के, बिना किसी ग्लानि या त्याग जताने के अहंकार के, वन की ओर जाने को तत्पर हो उठे। स्वयं दशरथ के मन में श्रीराम के प्रति असीम स्नेह था, मगर वे वचन से बंधे थे। एक ओर पुत्र प्रेम था, तो दूसरी ओर कैकयी को दिया वचन पूरा करने का कर्तव्य।
इस द्वंद्व में जीत कर्तव्य की हुई और दशरथ ने भरे मन से राम को वनवास का आदेश सुना दिया। राम ने तो पिता की आज्ञा का पालन करते हुए निःसंकोच वन का रुख कर लिया किंतु दशरथ का पितृ हृदय पुत्र का वियोग और उसके साथ हुए अन्याय की टीस सह न सका। अंततः राम का नाम लेते हुए ही वे संसार को त्याग गए।
3 उत्तराकांड में पिता-पुत्र संबंध : उधर रामायण में ही पिता-पुत्र संबंधों का एक अन्य रंग उत्तराकांड में मिलता है। लव और कुश का लालन-पालन पिता से दूर, ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में होता है। जब राम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में चला आता है तो किशोर वय लव-कुश उसे बांधकर अनजाने में अपने ही पिता की सत्ता को चुनौती देते हैं और उनकी शक्तिशाली सेना को परास्त कर देते हैं। नियति के अदृश्य धागे इस तरह पिता और पुत्रों को आमने-सामने ले आते हैं।
4 शिव पुराण के नजरिए से पिता-पुत्र : पिता-पुत्र का आमना-सामना शिव पुराण में भी होता है, थोड़े अलग अंदाज में। स्नान के लिए जाते हुए पार्वती अपने उबटन के मैल से एक सुंदर बालक का पुतला बनाती हैं और फिर अपनी शक्तियों से उसमें प्राण डाल देती हैं। वे उसे निर्देश देती हैं कि जब तक वे स्नान करके न आ जाएं, बालक किसी को भी भीतर न आने दे। कुछ ही देर में स्वयं शिव वहां आते हैं और अपनी मां के आदेश का अक्षरशः पालन कर रहा बालक उन्हें भी रोक देता है। शिव द्वारा अपना परिचय देने पर भी वह टस से मस नहीं होता। कुपित होकर शिव उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं।
जब पार्वती को पता चलता है तो वे दुख से बेहाल हो जाती हैं और बालक के जन्म की बात बताते हुए अपने पति से उसे पुनः जीवित करने को कहती हैं। तब शिव हाथी के बच्चे का सिर बालक के धड़ पर रखकर उसे जीवित कर देते हैं और उसे गणेश नाम देते हुए अपने समस्त गणों में अग्रणी घोषित करते हैं। साथ ही कहते हैं कि गणेश समस्त देवताओं में प्रथम पूज्य होंगे।
5. धृतराष्ट्र की पितृ भक्ति : जहां राम और देवव्रत की कथाओं में पितृ भक्ति के चलते पुत्र के चरित्र का सशक्त पक्ष सामने आता है, वहीं धृतराष्ट्र का उदाहरण पुत्र मोह के चलते आई चरित्रगत कमजोरी दर्शाता है। धृतराष्ट्र की सारी अच्छाइयां अपने दुष्ट पुत्र दुर्योधन की काली करतूतों को नजरअंदाज कर देने के अपराध के आगे बौनी पड़ जाती हैं।
दुर्योधन द्वारा पांडवों के साथ किए गए हर अन्याय, हर अपमान को धृतराष्ट्र ने मौन रहकर अपनी स्वीकृति दी। भीष्म और विदुर जैसे वरिष्ठजनों की सलाह हो या फिर सीधे-सरल विवेक की बात, धृतराष्ट्र सब कुछ अनसुना करते गए। जब राज्य का विभाजन करने की नौबत आई, तो उन्होंने बंजर हिस्सा पांडवों को दिया और उर्वर हिस्सा अपने पुत्रों को। जब भरे दरबार में दुर्योधन के आदेश पर पुत्र वधू द्रौपदी को अपमानित किया गया, तब भी धृतराष्ट्र की अंतरात्मा पुत्र मोह के आगे हार गई और सोई रही। आखिरकार धृतराष्ट्र को युद्ध में दुर्योधन सहित अपने समस्त पुत्रों को खोने का त्रास झेलना पड़ा। पुत्र मोह की इस अति और इसके त्रासद परिणाम के चलते धृतराष्ट्र का नाम एक तरह से मुहावरा ही बन गया है। आज भी हमें अपने आसपास धृतराष्ट्र वृत्ति वाले अनेक पिता मिल जाएंगे।
6. प्रह्लाद-हिरण्यकशिपु की पितृ भक्ति : धृतराष्ट्र के ठीक विपरीत कथा है हिरण्यकशिपु की। अपनी शक्ति के मद में चूर हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान मान बैठा और जब उसके पुत्र प्रह्लाद ने उसे भगवान मानने से इंकार करते हुए भगवान विष्णु की आराधना जारी रखी, तो वह अपने ही बेटे की जान का दुश्मन बन बैठा और उसे मरवाने के लिए एक के बाद एक षड्यंत्र करता रहा।
उसे उसके कर्मों का फल तब मिला जब विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर उसका वध कर डाला। ऐसे कई उदाहरण, पिता-पुत्र के ऐसे ही अनेक किस्सों से हमारी पौराणिक कथाएं समृद्ध हैं, जो रिश्ते के विविध आयामों में पिता का महत्व बयां करते हैं।