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रणथंभौर में बाघिन से मुलाकात

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- सरिस्का (राजस्थान) से भाषा सिंह

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जंगल हमारे साथ मानो दम साधे खड़ा था। जीपें छोटी-सी पगडंडी पर थम गई थीं। हमसे महज 100 मीटर ही दूर थी बाघिन। सबके चेहरों पर बाघिन का सामना करने का उत्साह और खौफ की मिलीजुली छाया थी। बगल में खड़ी सहयात्री ने पूछा, जीप खुली है, कहीं बाघिन इस पर तो नहीं छलांग मार देगी! मुस्कराने के अलावा किसी के पास कोई जवाब नहीं था।

रेडियो कॉलर के संकेत पकड़ने वाले एंटिना की बीप-बीप लगातार तेज होती जा रही थी। 'बस यहीं है, अब चल रही है, शायद इधर ही आ रही है' कहते हुए वन विभाग के अधिकारी एंटीना को घुमा-घुमाकर बाघिन की पोजीशन का सही-सही अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहे थे।

क्या कहने हैं 'मछली' के

इसका नाम ही मछली है। उम्र है 12 साल। नौ बच्चों की माँ है यह मछली। जितना उसका नाम खास है उतना ही काम भी। इसे लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिल चुका है। देश-विदेश में इसकी धूम है।

मछली रणथंभौर की बाघिन है। इस बाघिन के चेहरे पर मछली की आकृति बनी हुई है। यह मछली की आकृति इसे अपनी माँ से विरासत में मिली है। इसकी माँ के चेहरे पर इससे भी अधिक साफ आकृति थी मछली की। देश की पहली बाघिन है जिसे इस अवार्ड से नवाजा गया है। ट्रेवल टूर ऑपरेटरों के अनुसार यह हर साल करीब 65 करोड़ रुपए का बिजनेस देती है।

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विदेशी पर्यटक इसके बहुत दीवाने हैं। वे विशेष रूप से इसे देखने रणथंभौर टाइगर रिजर्व आते हैं इसीलिए इसे यह अवार्ड दिया गया है। रणथंभौर के शफात हुसैन ने बताया कि हर साल करीब 1.78 लाख पर्यटक आते हैं और उनमें से अधिकांश मछली की झलक देखने के लिए आतुर रहते हैं। इस समय रणथंभौर में कुल 41 बाघ हैं, जिसमें से 20 नर हैं और 21 मादा।

सरिस्का टाइगर रिजर्व में इस समय दो बाघिन और एक बाघ है। तीनों के गले में रेडियो कॉलर लगा हुआ है। इससे उनकी गतिविधि पर ठीक से नजर रखी जा सकती है तथा उन्हें शिकारियों से भी बचाया जा सकता है। शुरू में सबने यही कहा था कि रेडियो कॉलर के चलते बाघ को आसानी से देखा जा सकता है। पर ऐसा नहीं है। बाघ भी खूब छकाते हैं। साथ में चल रहे एक वन गार्ड ने कहा, बाघ इंसानी गंध को बहुत जल्दी सूंघ लेता है। इसके बाद वह बाहर आता नहीं।

ठीक भी है वह जंगल में है कोई चिड़ियाघर में नहीं। इस टाइगर रिजर्व में बाघों सहित कई जानवरों पर शोध करने वाली छात्रा शिल्पी गुप्ता हमारी पथ प्रदर्शक थी। वह हमें जीप में छोड़कर पैदल एक दूसरे वन विभाग के अधिकारी के साथ बाघिन को देखने निकल गई। चूँकि सरिस्का में जीपों से ही बाघ देखने की व्यवस्था है, हाथी नहीं है इसलिए घने जंगल में जाकर बाघ नहीं देखे जा सकते। शिल्पी ने वायरलेस पर बताया कि उसकी आँखों के सामने ही बाघिन है लेकिन शायद वह हिलेगी नहीं। तो क्या हम उसे देखने वहाँ जाएँगे-मुंह से निकला ही था कि सरिस्का टाइगर रिजर्व के डीसीएफ सुनयन शर्मा ने रोबीले अंदाज में कहा, 'नहीं।

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आप यहीं बैठें, हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते। 'इस तरह से उस बाघिन, जो टाइगर रिजर्व में सी-2 के नाम से जानी जाती है, से मुलाकात नहीं हो पाई। हालांकि हम उसके बिलकुल पास थे। हमने वह जगह भी देख ली थी, जहाँ उसने ताजा शिकार किया था। पुराना शिकार भी एक किलोमीटर ही दूर था लेकिन वहाँ तो वह फटकती नहीं। वहाँ कौवों-सियारों का जमावड़ा था और भयानक गंध का राज था।

इस तरह से सुबह पाँच बजे से शाम छह बजे तक दो बार उसके पीछे-पीछे हम सफर करते रहे। बाघिन का दर्शन देने का मन नहीं था सो उसने नहीं ही दिया। बस उसकी आहट भर से तसल्ली करनी पड़ी। रास्ते में चीतल, बारहसिंगा, नीलगाय, साही, सियार, जंगली सुअर, खरगोश और तरह-तरह की रंग-बिरंगी चिड़ियाँ नजर आईं। पगडंडियों के इर्द-गिर्द नाचते और घाटी में उड़ते मोरों का दृश्य बाघ को न देख पाने की मायूसी को खत्म कर गया। सरिस्का टाइगर रिजर्व की खूबी यही है कि यहाँ जितनी विविधता पेड़-पौधों की है, उतनी ही वन जीवों और पक्षियों की है।

सरिस्का के सारे बाघ शिकारियों ने मार डाले थे, उसके बाद राजस्थान के रणथंभौर टाइगर रिजर्व से यहाँ एक-एक करके एक बाघ और दो बाघिन लाई गईं। पहला बाघ (सी-1)पिछले साल 28 जून को लाया गया था। सी-3 बाघिन इस रिजर्व में इस साल 25 फरवरी को लाई गई। अब इंतजार हो रहा है कि कब इनका परिवार ब़ढ़ेगा और कब छोटे बाघ-बाघिन सरिस्का के रिजर्व की शोभा बढ़ाएँगे। बाघों के साथ-साथ बाकी जानवरों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। रिजर्व के अधिकारियों के अनुसार वल्चरों की संख्या 2007 में घटकर 50 रह गई थी जो 2009 में बढ़कर 250 हो गई है। इसे इस जंगल के लिए शुभ संकेत माना जा रहा है।

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अगले दिन सुबह 5.50 पर ही हम फिर बाघिन के दर्शन को आतुर हो जंगल में चक्कर काटने लगे। इस बार जीपों की संख्या कम कर दी गई थी ताकि बाघ या बाघिन आवाज से परेशान हो भीतर छुप न जाए। पता चला की बाघिन सी-२ ब्रहमनाथ की जोहड़ के पास है। रास्ते में नीलगाय मिली जो बहुत विचित्र ढंग से पांव फैलाए खड़ी थी। देहरादून के वर्ल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट के वाई.वी. झाला ने कहा कि नीलगाय बता रही है कि बाघिन पास ही है। अंदाजा बिलकुल सही था, बमुश्किल आधा किलोमीटर दूर चोटी पर बाघिन थी।

मनमांगी मुराद मिल गई। सरिस्का आना सार्थक हुआ। सी-2 ने दर्शन दे दिए। चोटी के पास पेड़ों के झुटपुटे में बाघिन अधलेटी थी। हमारे और उसके बीच सिर्फ 50 मीटर या यू कहें चंद कदमों का फासला था। इतने पास जमीन से बाघिन को महसूस करने का रोमांच हमारे भीतर झुरझुरी होने लगी। हमारी आवाजें सुनकर वह उठी और नीचे की तरफ उसने कदम बढ़ाए। तीन-चार पेड़ों को पार किया, एक नजर हमारी ओर डाली। हल्की सी दहाड़ निकाली। मानो वह अपने आराम में खलल पड़ने पर नाराजगी जताना चाह रही हो। फिर ऊपर की तरफ मुड़ गई। सब कुछ मिनटों में हो गया। बाघिन की छवि मंत्रमुग्ध करने वाली थी।

जिस अंदाज में वह नीचे आ रही थी, उसने सबको सकपका दिया था। वन विभाग के अधिकारी ने कहा, सिर्फ दो छलांग में वह हमसे हाथ मिला सकती है। सब जानते थे कि बाघ या बाघिन बिना वजह इंसान पर हमला नहीं करते। बाघिन का पेट भरा था और हम निहत्थों से उसे कोई खतरा नहीं था। हम सब जीप से नीचे उतरकर उसकी छवि को कैमरों में कैद करने की कोशिश कर रहे थे। जब वह नीचे आ रही थी तो उसके गले में लगा रेडियो कॉलर दिखने लगा। इस बाघिन को 4 जुलाई, 2008 को रणथंभौर से सरिस्का लाया गया था। इस बाघिन से ही इस समय बाघ परिवार को बढ़ाने की सबसे ज्यादा आस बंधी हुई है।

बाघिन से यह मुलाकात बस 10 मिनट तक रही। बाघिन ने हमें 10 मिनट नवाजे। बाघिन से इतनी देर की मुलाकात विरलों को ही नसीब होती है। उसकी इस उदारता ने हमें उसका मुरीद बना दिया।

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