जलदापाड़ा के गैंडों पर गाज
- कोलकाता से दीपक रस्तोगी
पश्चिम बंगाल का जलदापाड़ा अभयारण्य। बॉयोडायवर्सिटी के लिए मशहूर यह राष्ट्रीय अभयारण्य एक सींग वाले गैंडे (राइनो) का संरक्षित वन क्षेत्र भी है लेकिन इन दिनों जलदापाड़ा में विचरण करने वाले राइनो शिकारियों के निशाने पर हैं। यह शिकारियों की ही महिमा है कि जलदापाड़ा और पास के गोरुमारा में आज की तारीख में एक सींग वाले गैंडों की संख्या 50 से कम रह गई है जो 60 के दशक में तीन सौ से ज्यादा थी। हाल में शिकारी फिर सक्रिय हुए हैं। अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में एक ही दिन में दो गैंडों की मौत के बाद से यहाँ गैंडों के संरक्षण की दिशा-दशा को लेकर सवाल उठने लगे हैं। जलदापाड़ा के इस कांड को लेकर अफसरों ने पर्दा डालने की काफी कोशिश की। वजह, गैंडों में से एक की मौत वन विभाग के कर्मचारियों की लापरवाही की कहानी कहती है। आइए संक्षेप में 11 अक्टूबर की घटना का जायजा लें। पहली घटना, एक दिन पहले जलदापाड़ा संरक्षित वन क्षेत्र के स्थानीय अधिकारियों को सूचना मिलती है कि असम से आए शिकारियों के एक दल ने एक नर गैंडे को गोली मार दी है। उसके सिर से खून रिस रहा है। मौके पर पहुंचे वन विभाग के अफसरों ने उसे पकड़ने की कोशिश में बेहोशी का इंजेक्शन (ट्रैंकोलाइजर) दागा। तोर्सा नदी के किनारे-किनारे भागते हुए वह गैंडा उसी हालत में कहीं 'लापता' हो गया। अगले दिन दोपहर के समय नदी में भाटा (पानी उतरने) के वक्त गाँव वालों ने एक गैंडे को मरा पाया। पता चला कि वह वही गैंडा था जिसे इंजेक्शन दागा गया था। बेहोशी की हालत में वह नदी में डूब गया होगा। इस घटना के बारे में कोलकाता में बैठे प्रिंसिपल चीफ कंजरवेटर ऑफ फॉरेस्ट अतनु राहा ने पहले तो इस बात से इनकार ही किया कि वह नर गैंडा शिकारियों की गोली से घायल हुआ था। फिर पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद यह माना और वन विभाग के संबंधित कर्मियों के खिलाफ जांच बिठा दी।
बात इतने पर ही नहीं खत्म हुई। असम के कथित शिकारियों की तलाश में कॉम्बिंग ऑपरेशन के दौरान जलदापाड़ा संरक्षित वन क्षेत्र के चिलापाता, कोदलबस्ती और अन्य इलाकों के 45 किलोमीटर क्षेत्र में तलाशी अभियान के दौरान चिलापाता में एक मादा गैंडे का शव मिला जो संभवतः उस नर गैंडे के साथ विचरण कर रही थी। उसके जबड़े में गोली लगी थी और पिछला बायां पैर चोटिल था। उत्तर बंगाल के फॉरेस्ट कंजरवेटर मणिन्द्र विश्वास के अनुसार, कुनकी हाथी की मदद से दोनों गैंडों के शव ढूंढ़े गए। इसे अपने ऑपरेशन की कामयाबी बताते हुए श्री विश्वास और अन्य अधिकारी शिकारियों के दल को जल्द ही ढूंढ़ निकालने के दावे कर रहे हैं लेकिन लुप्तप्राय प्रजाति के इन जीवों के संरक्षण को लेकर खुद वन विभाग के कर्मी कितने सचेत हैं, इस पर इस कांड से सवाल उठ गया है। सिलिगुड़ी से मिली सूचनाओं के अनुसार, घायल गैंडे को इंजेक्शन दागने के बाद उसे नदी किनारे से जमीन की ओर भगाने के लिए वन विभाग की टीम में शामिल कुछ कर्मचारियों ने पत्थर मारे। बदहवासी में वह गैंडा नदी की ओर भागता चला गया था। इस घटना ने 80 के दशक की याद दिला दी है, जब जलदापाड़ा और असम के काजीरंगा अभयारण्य में गैंडों के अवैध शिकार की खबरें आती थीं और वन्य जीव प्रेमी माथा कूटकर रह जाते थे। बाद में दस्तावेजों में कई योजनाएं बनीं और सक्रियता बढ़ाने और कड़ाई बरतने के दावे किए गए। हकीकत में क्या हुआ है, इसकी पोल भी जलदापाड़ा की ताजा घटना से खुली है। जलदापाड़ा में इस बार जो कांड हुआ, उस मौके पर तुरंत कार्रवाई के लिए कोई सक्षम अधिकारी इलाके में उपलब्ध नहीं था। जब संरक्षित वन क्षेत्र में शिकारियों की बंदूकें गूंज रहीं थी तब आला अफसर छुट्टियाँ बिताने और अन्य आयोजनों में व्यस्त थे। कूच बिहार के डिविजनल फॉरेन अफसर किसी ट्रेनिंग प्रोग्राम में बाहर हैं। जलदापाड़ा गैंडो के शिकारियों का गढ़ रहा है। सरकारी आँकड़ें कहते हैं कि सींग के लिए 1952 से लगभग सौ गेंडे मारे जा चुके हैं। 1952 से 1972 के बीच जलदापाड़ा में 43 और पास ही सटे गोरुमारा में चार गैंडों को शिकारियों ने मार डाला था। 1969 से 72 के बीच 32 गैंडे मारे गए थे।