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मेरी दोस्ती, मेरा प्यार

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विशाल मिश्रा

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दोस्त, सच्चा दोस्त। जीवन में ईश्वर की दी हुई वह नैमत है जोकि व्यक्ति के पास न हो तो उसे जरूर उसकी कमी खलेगी और यदि होगा तो जरूर उस पर वह गर्व करेगा, उसकी अहमियत उसे पता होगी।

तीसरी कक्षा में एक ऐसे सहपाठी के साथ बैठा था जिससे बातचीत की शुरुआत यहाँ से हुई थी कि 'कल तुम वहाँ पर मुझे खड़े दिखाई दिए थे क्या तुम्हारा घर वही है। उसने कहा हाँ, क्या उसके बगल वाला दरवाजा वह भी आपके घर में ही आता है, स्वीकारोक्ति में ‍उसने सिर हिलाया और बोला 'हाँ' वह पूरा घर मेरा ही है।

उसके बाद चलने वाला सिलसिला आगे बढ़ा। कभी वह मुझसे कुछ बातें करता, चाहे वह पढ़ाई के बारे में हो या फिर गप्पे लड़ाने वाली। कभी-कभी घर खेलने आ जाता तो कभी मैं उसके घर उसकी कॉपी लेने। उस दिन तक तो कोई भी पूछता तो कह देते थे कि यह मेरा दोस्त है और वह मेरे बारे में भी ऐसा दूसरों से बता देता। लेकिन आगे चलकर यह मेरा ‍सच्चा दोस्त बनेगा और मुझे दोस्ती के मायने बताएगा सोचा न था।

कभी उसे याद दिलाता हूँ कि अनुराग मेरी तुमसे बातचीत यहाँ से शुरू हुई थी क्या तुम्हें याद है? जवाब में कहता है यह तो याद नहीं विशाल। लेकिन एक वाकया याद है। उसी वर्ष तुम स्कूल में कक्षा तीसरी में प्रवेश के लिए क्लासटीचर को इंटरव्यू दे रहे थे तो मैम के पूछने पर तुमने बताया था कि तुम्हें पहाड़े 40 तक याद हैं जोकि उस समय 'विचित्र किंतु सत्य' वाली बात हुआ करती थी और बाकायदा तुमने मैम को 35 और 39 का पहाड़ा बोलकर सुनाया था।

उस वक्त मैंने अपने मित्र के चेहरे पर मैंने खुशी के क्षण देखे। जीवन में विरले ही ऐसे दृश्य देखने को मिले। कि क्या मेरी बातों से कोई इतना खुश हो सकता है। वह भावविभोर और मेरा दिल बाग-बाग हो गया।
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आज लगभग 25 वर्षों से चला आ रहा मेरा याराना जिसे विलग कर अपने जीवन के बारे में सोचना भी मेरे लिए बेमानी होगा। इसे छोड़ना ठीक वैसा ही होगा जैसे गंगा नदी को हटाकर भारत के इतिहास का वर्णन करना। प्राथमिक स्कूल, माध्यमिक स्कूल और उसके भी आगे के लगभग 12 से 15 वर्षों में मुझे याद नहीं आता कि हम दोनों इंदौर में हों और बगैर एक-दूसरे से मिले कोई भी दिन निकला हो।

किसी बात पर ‍लड़ना या विवाद तो बहुत दूर की बात है कभी आपस में बातचीत भी बंद नहीं हुई। हाँ एक बार खेल-खेल में किसी बात से खफा होकर वह बगैर कुछ बोले बस चुपचाप घर के लिए निकल गया और उसका चेहरा उतरा हुआ था। उस समय उसके जाने से हुआ खालीपन शायद अंदर तक मुझे हिला गया और दिल के किसी कोने में हुआ अपने आप से वादा कि 'जीवन में यह क्षण आगे कभी न आए तो अच्‍छा।' ईश्वर की कृपा से आज तक यह वादा निभा रहा हूँ।

हिन्दी विषय में कक्षा में सबसे ज्यादा अंक लाने वाला मेरा यह मित्र एक बार कोचिंग क्लास में एक ट्‍यूटर के रूप में जॉब करने लगा। मैंने कोचिंग क्लास के पम्प्लेट पर पढ़ा हिन्दी (हिंन्दी) गलत लिखा हुआ था। चूँकि कोचिंग क्लास का संचालक भी हमारा दोस्त ही था। मैंने उससे कहा यार सरजी यह हिन्दी गलत पढ़कर दुख हो रहा है और उसके दो कारण है। बोला क्या? मैंने कहा एक तो यह ‍आपका विज्ञापन है और आपने हिन्दी ही हिन्दी भाषा में गलत लिख दिया और दूसरा आपके साथ काम करने वाला व्यक्ति (मेरा दोस्त) हमेशा हिन्दी में अव्वल आता था। आपने उसकी मदद ही नहीं ‍ली होगी।

उस वक्त मैंने अपने मित्र के चेहरे पर मैंने खुशी के क्षण देखे। जीवन में विरले ही ऐसे दृश्य देखने को मिले। कि क्या मेरी बातों से कोई इतना खुश हो सकता है। वह भावविभोर और मेरा दिल बाग-बाग हो गया। जैसे 'सूरज की गर्मी से तपते हुए तन को मिल जाए तरूवर की छाया'। उसके बाद समय-समय पर वह भी मेरी हौसला अफजाई करने लगा। जैसे एक बार जेब में मेरे कलम नहीं थी तो कहने लगा अरे यार तुम पत्रकार होकर पेन नहीं रखते हो, ये तो गलत बात है। तुमको तो पेन रखना चाहिए आदि-आदि।

आज भी जब दोस्ती के किस्से कहीं पढ़ता या सुनता हूँ तो ईश्वर की कृपा मानता हूँ कि इस दोस्ती को मैं आज जी भी रहा हूँ। कुछ भी नहीं रहता दुनिया में लोगों रह जाती है दोस्ती। ज़िंदगी का नाम दोस्ती, दोस्ती का नाम ज़िंदगी।

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