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सखा तुम हो साँई स्वरूपा

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- डॉ. जीवन मोदी

मेरी पैदाइश ग्रामीण परिवेश में हुई। हमारा परिवार सिर्फ खेती-बाड़ी पर आश्रित था। मेरी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई थी। वह 1986 का साल था, जब मेरा परिवार गाँव छोड़कर इंदौर आ बसा।

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घर की आर्थिक स्थितियाँ ठीक नहीं थीं। इसीलिए मुझे भी पढ़ाई के साथ एक क्लिनिक में काम करना पड़ा। कुछ साल क्लिनिक में काम करने के बाद मुझे अपोलो ह‍ॉस्पिटल में ओटी टेक्निशियन के रूप में काम का एक अवसर मिला। यहीं पर मेरी मुलाकात डॉ. राजेश माहेश्वरी से हुई। यह बात है 1992 की। तब तक बी.कॉम की मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी।

डॉक्टर माहेश्वरी ने मुझे बारहवीं की परीक्षा फिर से बायलॉजी के साथ पास करने की सलाह दी। ग्रेजुएशन के बाद फिर पीछे लौटने की सलाह! कॉमर्स पढ़ने के बाद बायलॉजी का विषय, बिल्कुल बेमेल बात थी। मुझे नहीं मालूम ऐसी सलाह देकर वे आखिर चाहते क्या थे? लेकिन मैंने एक बड़े भाई के रूप में उनकी बात मानी और वैसा ही किया।

जाहिर है एकदम नए विषय में वह भी तीन साल पीछे लौटकर नए सिरे से स्कूली पढ़ाई का अनूठा प्रयोग अनिश्चित ही था। डॉक्टर ने अपनी जेब से मेरी फीस भरी और रात-रात भर मेरी पढ़ाई का पूरा ध्यान रखा।

मैं नहीं जानता कि कौन सी शक्ति इंदौर जैसे व्यावसायिक रूप से व्यस्त एक शहर में एक व्यस्त डॉक्टर से ऐसा कराने की प्रेरणा दे रही थी? हॉस्पिटल की तयशुदा ड्‍यूटी पूरी करने के बाद वे मेरी पढ़ाई पर इतना ध्यान देते, जैसे कोई अपने बच्चे पर देता है। जरूरत पड़ने पर पूरे हक से डाँटते, समझाते और उलाहने देते। साम, दाम, दंड, भेद से आखिरकार उन्होंने मुझे बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कराकर ही दम लिया। डॉक्टर साहब की नसीहत होती थी कि एक कॉमर्स ग्रेजुएट देहाती युवक को अस्पताल की नौकरी करते हुए बायोलॉजी जैसे विषय में स्कूली पढ़ाई में कामयाब कर दिया।

डॉक्टर साहब यह कमाल करके ही नहीं रुके। उन्होंने अगली चुनौती यह स्वीकार की कि मुझे भी डॉक्टर बनना चाहिए और यह बीड़ा भी उन्होंने उठा लिया। मेरे लिए यह सपने जैसा था।

मुझे भी लगा कि डॉक्टर साहब की तबियत तो ठीक है? लेकिन साथ रहकर मैं यह तो जान गया था कि यह शख्स है अद्‍भुत, जो भी ठान लेता है, उसे पूरा करके ही ठहरता है। तो आगे का किस्सा यूँ है कि डॉक्टर साहब गए और बीएचएमएस की डिग्री में दाखिले के लिए मेरा प्रवेश पत्र भरकर आ गए। जैसे-तैसे मेरा एडमिशन मेडिकल कॉलेज में कराके ही माने। मैंने भी खुद को नियति के हवाले कर दिया था। उन्होंने कॉलेज भेजकर ही दम नहीं लिया। मेरी हर जरूरत का भी पूरा ख्‍याल रखा और खुद भूखे रहकर मेरे भोजन की चिंता की। ऐसे लोग कहाँ मिलेंगे?

वे सांई बाबा के अनन्य भक्त हैं और उनसे मुझे बाबा के बारे में जानने का मौका मिला। जब भी जाते हमेशा शिरडी साथ ले जाते। कभी छोटे-बड़े का अहसास नहीं होने दिया। उनकी आस्थाओं का विस्तार इंदौर की गुलाब बाग कॉलोनी में सांईकृपा हॉस्पिटल के रूप में सामने आया, तब तक मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी और उन्होंने अपने ही साथ सहयोगी के रूप में काम करने को मुझे चुना।

कई सालों के इस संबंध के दौरान परिवार में आए आड़े वक्त उन्होंने मदद करने में भी कभी संकोच नहीं किया। आर्थिक संकटों के समय खुले दिल से मदद के लिए ऐसे आगे आए कि सुनकर कोई सगे-संबंधी भी शरमाकर मुँह छिपाते जाएँ।

मेरे पिता श्री जगदीश मोदी को दिल का दौरा पड़ा और नौबत सर्जरी की आई तो मुझसे आगे वही नजर आए। कभी कोई अपेक्षा करने या माँगने का तो मौका ही नहीं दिया। मेरी परीक्षाओं के दिनों में मुझसे ज्यादा बाबा के समक्ष मेरी सफलता की कामनाएँ उन्होंने कीं। मेरी पीड़ा के समय उनकी आँखों में आँसू मैंने कई बार देखे हैं। मैं कभी नहीं समझ पाया कि यह किस जन्म का बकाया संबंध है, जो इतने प्रगाढ़ रूप में इस जन्म में मुझे मिला है। मैं कभी इससे उऋण नहीं हो सकता। इस जीवन में तो कभी नहीं।

मेरे पिता अपने महँगे इलाज व सफल ऑपरेशन और मेरे जीवन में आए सुखद मोड़ का श्रेय उन्हें ही देते हैं। वे कहते हैं कि राजेश वैसे तो मेरे बेटे के ही समान है, लेकिन सामान्यत: परिवारों में बेटे भी अपने माँ-बाप और भाइयों के लिए जितना नहीं करते, उतना हमेशा ही उन्होंने किया है। डॉक्टर राजेश की तर्ज पर मेरे पिता भी इस संबंध का सूत्रधार साईं बाबा को ही मानते हैं।

डॉ. माहेश्वरी की पूज्य माताजी का भी पुत्रवत स्नेह मुझे मिला। हम उन्हें सारे बच्चों की तरह बाई कहकर ही संबोधित करते थे। मैं जब भी उनके पास गया, हमेशा ही वे मुझे कहतीं कि राजेश से नाराज मत होना। वह दिल का साफ है। कभी धोखा नहीं देगा। उसे छोड़कर मत जाना। उसकी नाराजगी को बहुत गंभीरता से मत लेना। हमेशा उसके आसपास रहना।

फुरसत के समय लोग बेकार की बातों में समय नष्ट करते हैं। कभी व्यवस्था को कोसेंगे और कभी दूसरे नकारात्मक विषयों में सिर्फ चर्चाओं में वक्त बर्बाद करेंगे। कभी इसकी बुराई, कभी उसकी। डॉक्टर राजेश को हमने अलग ही पाया। वे खाली समय में अक्सर साँई बाबा के बारे में बात करेंगे। किसी इष्ट के प्रति ऐसा अटूट और एकरूप संबंध हमने नहीं देखा। उनकी आस्था चुंबकीय है, जो उनके संपर्क में आने वाले कई लोगों को बाबा से जोड़ देती है। मेरे साथ भी यही हुआ है। बाबा से हमारी भक्ति का निमित्त वही है।

मैं ही नहीं, मेरे परिवार के कई लोग और संबंधी भी इस आध्‍यात्मिक ऊर्जा में एक साथ प्रवाहित हैं। भक्ति के इस संस्कार को अपने पेशे में भी उतारा है। अपने पास जाने वाले रोगियों से हमारा संबंध व्यावसायिक नहीं, आध्यात्मिक धरातल पर ही ज्यादा होता है। जितना नितांत आवश्यक है, मरीज को उतने ही खर्च में श्रेष्ठ उपचार मुहैया कराया जाए, यही हमारे काम का सूत्र है। अपने फायदे के लिए अनावश्यक जाँच पड़तालें, महँगी दवाएँ और ऊँची फीस के बारे में हमारे लिए सोचना भी पाप है।

हम हमेशा यही ध्यान करते हैं कि उन अभागे मरीजों की जगह हम भी हो सकते थे! हमें उनकी मुश्किलों को संवेदनशील होकर समझना चाहिए। वक्त जरूरत हम उन्हें अपनी सीमाओं के बाहर जाकर भी मदद करते हैं ताकि स्वस्थ रहने का उनका अधिकार सुरक्षित रहे। हर जरूरतमंद हमें बाबा की मूर्ति ही नजर आता है। हम अन्याय या लापरवाही कर ही नहीं सकते। हमें अपनी पूजा के समय बाबा से आँखें भी मिलानी हैं। वे सब जानते हैं। हमारे लालच की सजा हमारे बच्चों को न मिले, यह भय न भी हो तो भी लेशमात्र लालच हमारे भीतर नहीं आता। हमारा आज बीते हुए कल से बेहतर है तो हमारा आने वाला कल आज से बेहतर होगा और यह काम बाबा करेंगे।

हमें बस अपने कर्तव्य और अपनी दक्षता का यथासंभव निस्वार्थ उपयोग करना चाहिए। यह सारे सबक डॉक्टर राजेश ने हमें दिए हैं। मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि यह आदमी मेरे जीवन में बाबा की ही जीवंत मूर्ति बनकर प्रकट हुआ है। उन्हें बाबा के विषय में जीवंत अनुभूतियाँ हैं, लेकिन उन्होंने मेरे जीवन परिवर्तन में जो किरदार निभाया है, वह उन्हें मानवीय परिभाषाओं से परे ले जाता है। एक अनगढ़ और मामूली पत्थर को तराशकर हीरा बनाने का काम उन्होंने किया है, इसमें उन्होंने अपने फायदे की कभी नहीं सोची। सच तो यह है कि इसमें उनका कोई भौतिक लाभ कभी था ही नहीं।

'जब तक बिका न था, मुझे कोई पूछता न था...
तूने खरीदकर मुझको अनमोल बना दिया।'

इन दिनों हम सब मिलकर अपने दैनंदिन के दायित्वों के अलावा बाबा के भव्य मंदिर के निर्माण का संकल्प पूरा कर रहे हैं। डॉक्टर का भरोसा बाबा पर है और मेरा उन पर। इस तरह बाबा से मेरे रिश्ते के तार भी उतनी ही मजबूती से जुड़े हैं।

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