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एक छोटी-सी फांसी दे दे बाबा...!

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- राजेंद्र शर्मा
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एक, जी हां सिर्फ एक फांसी का सवाल है। वह भी यूं ही किसी की भी फांसी का नहीं, सिर्फ फांसी लायक होने की ही वजह से किसी बंदे की फांसी देने का भी नहीं, बाकायदा फांसी की सजा पाए हुए बंदे की फांसी का सवाल है। मांग कुछ विचित्र ही सही, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सरकार से पहली बार यह कहा जा रहा हो कि वह फांसी क्यों नहीं दे रही?

हर रोज न भी सही तो कम से कम पिछले सात-आठ साल से हरेक चुनाव के मौके पर तो मुख्य विपक्षी पार्टी बाकायदा इसकी मांग करती ही आई है। मगर फांसी नहीं मिली तो नहीं ही मिली। सत्ता पक्ष अगर विपक्ष की छोटी-छोटी मांगों को भी यूं ही ठुकराता रहेगा, तब तो डेमोक्रेसी चल चुकी।

खैर! अब तक तो फिर भी सरकार के पास इसका बहाना था कि फांसी की सजा की गाड़ी ही एक सिरे से रुकी पड़ी थी। जब पूरी लाइन ही जाम हो, लाइन तोड़कर किसी बंदे को फांसी के तख्ते पर कैसे चढ़ाया जा सकता है? सारी दुनिया क्या कहेगी, वगैरह। लेकिन अब तो फांसी की सजा का जाम भी खुल गया है। एक नहीं दो-दो बंदों की फांसी का फैसला हो गया है।

अब अफजल गुरु को बचाने वाले क्या बहाना बनाएंगे? और वे बहाना कुछ भी बनाएं पब्लिक उनकी बातों में हर्गिज आने वाली नहीं है। पब्लिक क्यों न केसरिया पलटन की ही बात सच मान ले कि भुल्लर की फांसी का रास्ता खुल सकता है, दास का नंबर लग सकता है, तीसरे-चौथे का परवाना कट सकता है पर अफजल गुरु का नहीं। मूढ़मते, यह तुष्टीकरण का मामला है!

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सरकार फिर भी बहानेबाजी से बाज नहीं आ रही है। दूसरा कोई बहाना नहीं मिला तो अब यही बहाना पकड़ के बैठे हैं कि दूसरे तोड़ें तो तोड़ें, सरकार कैसे क्यू तोड़ दे! भुल्लर के मामले में तो क्यू तोड़ दी, पर सरकार चलाने वालों के पास उसका भी जवाब है।

भुल्लर ने तो खुद क्यू तोड़ने की मांग की थी और सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मांग मान भी ली। फिर सरकार क्या करती? पर वह अपनी तरफ से किसी को क्यू कैसे जंप करा दे? फांसी की सजा पाए हुओं में भेदभाव करने की मांग कोई कैसे कर सकता है!

हमसे लिखाकर ले लीजिए, खाकीवालों की मांगी फांसी ये छद्म धर्म निरपेक्षतावादी हर्गिज नहीं होने देंगे। उलटे एक जरा सी फांसी आगे बढ़वाने की मांग करने के लिए बेचारे केसरिया भाई सफाई दे-देकर हलकान हो रहे हैं कि उनकी मांग कहीं से भी सांप्रदायिक नहीं है।

फांसी में ही सही, वे किसी अफजल को प्राथमिकता दिलाना तो चाहते हैं। एक छोटी-सी फांसी का सवाल है। माना कि फांसी देने से कुछ नहीं होगा पर देने में भी किसी का क्या चला जाएगा। कम से कम मुख्य विपक्षी दल की मांग का मान तो रह जाएगा। ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर अड़ना सरकार को जरा भी शोभा नहीं देता है।

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